Tuesday, January 5, 2016

गढ़िया पहाड़,कांकेर

कांकेर से लगे गढ़िया पहाड़ का इतिहास हजारों साल पुराना है। जमीन से करीब 660 फीट ऊंचे इस पहाड़ पर सोनई-रुपई नाम का एक तालाब है जिसका पानी कभी नहीं सूखता है। इस तालाब की एक खासियत यह भी है कि सुबह और शाम के वक्त इसका आधा पानी सोने और आधा चांदी की तरह चमकता है।

जानिए क्या है इस तालाब की कहानी
गढ़िया पहाड़ पर करीब 700 साल पहले धर्मदेव कंड्रा नाम के एक राजा का किला हुआ करता था। राजा ने ही यहां पर तालाब का निर्माण करवाया था। धर्मदेव की सोनई और रुपई नाम की दो बेटियां थीं। वो दोनों इसी तालाब के आसपास खेला करती थीं, एक दिन दोनों तालाब में डूब गईं। तब से यह माना जाता है सोनई-रुपई की आत्माएं इस तालाब की रक्षा करती हैं इसलिए इसका पानी कभी नहीं सूखता। पानी का सोने-चांदी की तरह चमकना सोनई-रुपई के यहां मौजूद होने की निशानी के रूप में देखा जाता है।

महाशिवरात्री पर लगता है मेला
पहाड़ पर एक शिव मंदिर है जो किला बनने से पहले से यहां मौजूद है। कहा जाता है कि यह एक हजार साल पुराना है, इस मंदिर में शिवलिंग के अलावा सूर्य और अन्य देवताओं की प्राचीन प्रतिमाएं हैं। 1955 से हर साल इस पहाड़ पर महाशिवरात्री का मेला लगता है।

- ग्राउंड लेवल से 660 फीट की ऊंचाई पर है पहाड़ की चोटी।
- 1955 से हर साल यहां महाशिवरात्रि पर मेला लगता है।
- 1972 में पहली बार गढ़िया पहाड़ पर पहुंची बिजली।
- 1994 में पहाड़ तक पहुंचने के लिए कंक्रीट की सीढ़ियों का निर्माण हुआ।


शहर से जुड़े ऐतिहासिक गढ़िया पहाड़ का इतिहास 700 साल पुराना है। पहाड़ पर धर्मदेव कंड्रा राजा का किला हुआ करता था। उस समय के सोनई रूपई तालाब में आज भी बारहों महीने पानी रहता है। मान्यता है कि राजा धर्मदेव की बेटियां सोनई व रूपई तालाब में डूब गईं थीं। तब से सुबह व शाम के समय तालाब का पानी आधा सोना व आधा चांदी की तरह चमकता है। नए साल पर परिवार के साथ गढ़िया पहाड़ पर ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण छुट्‌टी को यादगार बना सकता है।

होलिका दहन स्थल : झंडा शिखर के समीप ही होलिका दहन स्थल है। कांकेर का पहला होलिका दहन आज भी यहीं होता है। यहीं से अग्नि ले जाकर कांकेर के मोहल्लों में होलिका दहन किया जाता है।

सिंह द्वार : कंड्रा राजा धर्मदेव ने गढ़िया पहाड़ को मजबूत किले का रूप दिया था। किले का 700 साल पुराना सिंहद्वार आज भी कांकेर के अतीत गौरव का साक्षी है। गढ़िया पहाड़ के इतिहास की सच्चाई को बयां करता हुआ विशाल पत्थरों से निर्मित द्वार स्थित हैं इसे सिंहद्वार के नाम से जाना जाता हैं। राजापारा की ओर से सीढ़ी मार्ग के द्वारा जाने के रास्ते में यह द्वार पड़ता हैं। सिंहद्वार से लगा हुआ किले की चारदीवारी हुआ करती थी अब वो चारदीवारी ढ़ह गई हैं। किले की चारदीवारी जिन विशालकाय पत्थरों से निर्मित की गई थी वे अब भी उस स्थान पर गिरे पडे़ हुए हैं।


टूरी हटरी : गढ़िया किले की बस्ती का हृदय स्थल टूरी हटरी है। यह दैनिक बाजार के साथ जन सम्मेलन, मेला, सभा आदि के उपयोग आता था। उस जमाने के मिट्टी के बर्तन व ईंट-खपरों के टुकड़े आज भी यहां मिलते हैं।
पहाड़ी के ऊपर एक बड़ा सा मैदान स्थित है। उस मैदान में किले में निवास करने वाले राजा एवं उनके सैनिकों की आवश्यकता की वस्तुएं विक्रय करने के लिए बाजार लगा करती थी। इस बाजार में विक्रय करने के लिए लड़कियां सामाग्री लाया करती थी। इसी कारण इसका नाम टुरी हटरी (बाजार) पड़ा।


फांसी भाठा : राजशाही के जमाने में फांसी भाठा अपराधियों को मृत्यु दंड दिया जाता था। अपराधियों काे ऊंचाई से नीचे फेंका जाता था। एक बार कैदी ने अपने साथ सिपाही को भी खींच लिया। इसके बाद से अपराधियों के हाथ बांधकर उन्हें दूर से बांस से धकेला जाने लगा। झण्डा शिखर के पास ही फांसी भाठा स्थित हैं। इस स्थान से अपराधियों को राजा के द्वारा सजा ए मौत का फरमान जारी करने के बाद उन्हे पहाड़ी के नीचे धक्का दे दिया जाता था। एक बार एक अपराधी ने अपने साथ सजा देने वाले सैनिक का हाथ पकड़ कर उसे भी अपने खींच लिया जिससे अपराधी के साथ उस सैनिक की भी मौत हो गई। इस घटना के बाद सजा देने वाले सैनिक अपराधी को लबंे बांस से नीचे धक्का देने लगे।

जोगी गुफा : मेलाभाटा की ओर से पहाड़ी के ऊपर जाने के लिए कच्चा मार्ग बना हुआ है, इस मार्ग में एक काफी विशाल गुफा स्थित हैं। कहा जाता हैं कि उस गुफा में एक सिद्ध जोगी तपस्या किया करते थे जिनका शरीर काफी विशाल था वहां उस जोगी के द्वारा पहने जाने वाला काफी विशाल खडऊ आज भी मौजूद हैं। इस कारण इस गुफा को जोगी गुफा कहा जाता हैं। इस गुफा में प्राचीन काल से अब तक अनेक तपस्वी आकर ठहरते थे और बारिश का मौसम गुजरने के बाद आगे बढ़ जाते थे। गुफा को देखते आज भी श्रद्घालु व पर्यटक पहुंचते हैं।

पहाड़ पर स्थित शिव मंदिर किला बनने से भी पहले से यहां मौजूद है। इसका इतिहास कम से कम हजार साल पुराना माना जाता है। मंदिर में सूर्य समेत अन्य देवों की भी प्राचीन प्रतिमाएं हैं। 1955 से हर साल महाशिवरात्री पर पहाड़ पर मेला लगता आ रहा है।

सिंह द्वार की सुरंग 

सिंह द्वार के पास ही सुरंग दिखाई पड़ती है। सुरंग का दूसरा छोर बस्तर की पहाड़ियों में कहीं निकलना बताया जाता है। किले पर खतरा होने की स्थिति में राजा व प्रजा के बच निकलने के लिए सुरंग बनाई गई थी।

छुरी पत्थर देखने आते हैं लोग 

यहां की गुफा की छत पर अनेक छुरीनुमा पत्थर लटकते दिखाई पड़ते हैं। इन्हें देखने भी बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं। गुफा से निकलने के अनेक रास्ते हैं। गुफा में एक जगह ऐसी भी है, जहां आराम से 500 लोग बैठ सकते हैं।



धर्मद्वार : किले में आने जाने के लिए राजा धर्मदेव के द्वारा इस मार्ग का उपयोग किया जाता था। यह किले के पीछे का रास्ता हैं। इस ओर से कांकेर शहर एवं ग्राम गढ़पिछवाड़ी की ओर जाने का रास्ता हैं।

शिव मंदिर : सोनई रूपई तालाब के एक छोर में प्राचीन शिव मंदिर हैं। उस मंदिर में ऐतिहासिक महत्व की प्राचीनतम मूर्तिया रखी हुई हैं। शिवरात्रि के अवसर पर नगर पालिका परिषद कांकेर के प्रथम अध्यक्ष पं. विष्णु प्रसाद शर्मा जी ने मेले का आयोजन सन् 1952 से प्रारंभ करवाया था। तब से लेकर आज तक प्रत्येक शिवरात्रि के अवसर पर पहाड़ी के ऊपर विशाल मेला लगता आ रहा हैं।

कांकेश्वरी मंदिर : कांकेरवासियों ने श्रीश्री योगमाया कांकेश्वरी देवी ट्रस्ट का गठन करके पहाड़ी पर मंदिर का निर्माण कराया एवं 2 जुलाई 2002 को विधिवत पूजा अर्चना करके मां योगमाया दुर्गा की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा शहर के गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति में की गई। कांकेर वासियों की अराध्य देवी होने के इसका नामकरण मां योगमाया कांकेश्वरी देवी किया गया। जिसका आशय है कांकेरवासियों की देवी मां योगमाया।

छुरी पगार : सोनई रूपई तालाब के पास ही एक गुफा हैं। जिसमें जाने का मार्ग एकदम सकरा हैं किन्तु उस गुफा में प्रवेश करने के बाद विशाल स्थान हैं, जहां सैकड़ों लोग बैठ सकते हैं। गुफा के मार्ग में छुरी के समान तेज धारदार पत्थर हैं। इसी कारण इसे छुरी गुफा कहा जाता हैं। कहते हैं कि किले में दुश्मनों के द्वारा हमला होने पर राजा अपने सैनिकों के साथ इसी गुफा में छुप जाते थे।


शीतला मंदिर : तालाब के किनारे ही प्राचीन समय में राजा धर्मदेव ने शीतला देवी का मंदिर बनवाया था। उस मंदिर में देवी पिंड के रूप में थी जो अब दिखाई नही देता।  लगभग 8-9 वर्ष पूर्व इस मंदिर के पुजारी ने वहां दुर्गा की मूर्ति रख दी हैं।


झंडा शिखर :  गढ़िया पहाड़ को दूर से देखने में जो सबसे ज्यादा आकर्षित करता है वह है गढ़िया पहाड़ का मुकुट झण्डा शिखर। इस स्थान पर राजा का राजध्वज फहराया जाता था। जिस लकड़ी के खंम्बे में झण्डा फहराया जाता था उसके अवशेष वहां आज भी मौजूद हैं। कहा जाता है कि जब राजा किले में रहते थे तो झण्डा शिखर पर ध्वज लहराता रहता था एवं राजा के दौर में रहने पर ध्वज को उतार लिया जाता
था। ध्वज के कारण प्रजा को मालूम हो जाता था कि राजा किले में हैं या नही।


खजाना पत्थर : राजा का महल जिस स्थान पर था वहां एक विशाल ऊॅचा पत्थर मौजूद हैं। उस पत्थर को देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें पत्थर का ही दरवाजा बना हुआ हैं जिसे खोल कर भीतर जाया जा सकता हैं। किवदन्ती है कि इस पत्थर के नीचे राजा ने अपना खजाना छुपाया हुआ हैं। इसी कारण इसे खजाना पत्थर कहते हैं।

क्षेत्र में यह कहानी आज भी जिंदा है कि कांकेर के मध्यकालीन राजाओं का खजाना इसी जगह सुरक्षित रहता था। कहानी पर यकीन कर कई लोगों ने इस जगह को खोदकर देखा। हालांकि किसी को भी मिट्टी के घड़ों के टुकड़ों के अलावा कुछ हाथ नहीं अाया। 

2 comments:

  1. जय हो छत्तीसगढ़

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  2. agar yh story ni hoty to hme iske bare me itna malum hi ni hota

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