Friday, January 29, 2016

जगदलपुर (Jagdalpur)

जगदलपुर छत्तीसगढ़ राज्य में बस्तर जिले का प्रशासनिक मुख्यालय है। जगदलपुर अपने हरे भरे पहाड़ों, गहरी घाटियों, घने जंगलों, नदियों, झरनों, गुफाओं, प्राकृतिक पार्क, शानदार स्मारकों, समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों, विपुल उत्सव और आनंदमय एकांत से भर अपनी हरियाली के लिए जाना जाता है।

जगदलपुर में और आसपास के पर्यटक स्थल

अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य और जंगली जानवरों के लिये एक विशाल संरक्षित वन से समृद्ध, जगदलपुर अपनी पारंपरिक लोक संस्‍कृति के लिये जाना जाता है जो इस क्षेत्र को विशिष्टता प्रदान करता है। धमतरी में कई पर्यटक आकर्षण हैं। उनमें से कुछ कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान, इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान, चित्रकोट वॉटरफॉल, चित्राधरा झरने और दलपत सागर झील हैं, जहां एक म्‍यूजिकल फाउंटेन भी है, जो इस द्वीप को सुंदरता प्रदान करता है।
जगदलपुर - कला और हस्तशिल्प

कला और शिल्प समय, समाज और संस्कृति का एक लिखित प्रमाण है। आदिवासी और लोक कलाकार और शिल्पकार अपने कार्यों में अपनी विचारधारा, विचारों और कल्पना की ठोस अभिव्यक्ति करते हैं। वस्तुओं और दैनिक उपयोग की कलाकृतियों को बनाने हुए भी उनकी कलात्मक कल्पना और सौंदर्य की भावना काम करती रहती है। अपने देवी-देवताओं को शांत करने के लिये कर्मकांडों में कलात्मक प्रसाद की उनकी परंपरा सदियों से चली आ रही है, जो कला को जीवित और जीवंत रखे हुए है। कला, वास्तव में, अपने अस्तित्व का हिस्सा है।
जगदलपुर के आदिवासी और लोक कला और शिल्प की दुनिया में एक झलक भी लोगों को आकर्षषित कर लेती है। आदिवासी कलाकारों और शिल्पकारों को अपने अतीत और समृद्ध परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। देखा जाये तो जिस तरह से वे मिट्टी, लकड़ी, पत्‍थर, धातु, आदि को विलक्षण आकार, रूप और आकर्षक डिजाइनों में ढालते हैं, वह बेहद आकर्षक होता है और मन को छूने वाला होता है।
जगदलपुर में लौह शिल्प की परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है, और अपने कौशल और रचनात्मकता में बेजोड़ खड़ी हुई है। क्षेत्र के धातु शिल्प एक अद्वितीय देहाती आकर्षण हैं। लोहे की मूर्तियों में उत्‍कृष्‍टता के साथ क्षेत्र के शिल्‍पकार प्रत्‍येक पारंपरिक या काल्‍पनिक विषय पर प्रयोग करते हैं। उनके विषयों में स्थानीय देवता, सशस्त्र आदिवासी सैनिक, घोड़े, सूअर, और विभिन्न पक्षी शामिल होते हैं। उत्पाद मुख्य रूप से सजाने के लिये, पूजा करने के लिेये और रोजमर्रा में इस्‍तेमाल होने वाले हाते हैं।
जगदलपुर - लोग और संस्कृति

जगदलपुर के लोग अलग अलग कबीलों में बंटे हुए हैं। यहां कुछ जनजातियां पायी जाती हैं, जिनमें गोंड, मुरिया, हल्‍बा और अभुजमरिया हैं। गोंड न केवल भारत में सबसे बड़ा आदिवासी समूह हैं, बल्कि जगदलपुर की आदिवासी आबादी में सबसे ज्‍यादा यही हैं। वे मुख्य रूप से एक खानाबदोश जनजाति है और उन्‍हें कोयटोरिया भी बुलाया जाता है। मुरिया गोंड जनजाति में एक उप समूह है।
मुरिया, आम तौर पर खानाबदोश गोंड के विपरीत, स्थायी गांवों में रहते हैं। वे मुख्य रूप से खेती, शिकार पर और जंगल के फल खाकर जीवित रहते हैं। मुरिया आम तौर पर बहुत गरीब होते हैं और बांस, मिट्टी और फूस की छत के घरों में रहते हैं। हल्‍बा विकसित और समृद्ध जनजातीय समूहों में से एक है और उनमें से कई जमीनों के मालिक हैं।
राज्‍य के आदिवासियों के बीच हल्‍बा अपनी वेशभूषा, भाषा और सामाजिक गतिविधियों के कारण उच्‍च 'स्थानीय स्थिति' के लिये गौरवान्वित महसूस करते हैं। अभुजमारिया वो आदिवासी हैं, जो जगदलपुर के भौगोलिक रूप से दुर्गम क्षेत्र अभुजमार पहाड़ों और कुटरूमार पहाड़ियों पर पाये जाते हैं।

जगदलपुर तक कैसे पहुंचे

जगदलपुर में अच्छी तरह से रेल और सड़क मार्ग से राज्य के प्रमुख शहरों से जुड़ा है। शहर अच्छी तरह से रेल और सड़क सेवाओं के माध्यम से जुड़ा हुआ है।

महासमुंद (Mahasamund)

कभी सोमावंसिया सम्राटों के शासन में रहा, महासमुंद पारंपरिक कला और संस्कृति का एक केंद्र है। महासमुंद छत्तीसगढ़ के मध्य पूर्वी हिस्सा में है। सिरपुर, इस क्षेत्र का सांस्कृतिक केंद्र है, जिसकी वजह से काफी बड़ी संख्या में पर्यटक साल भर यहाँ आते है। यह महानदी नदी से किनारों पे बसा हुआ है। यह क्षेत्र चूना पत्थर और ग्रेनाइट चट्टानों से भरा पड़ा है।

महासमुंद की संस्कृति

कई जनजातियां जैसे बहलिया, हल्बा, मुंडा , सोनार , संवारा , पारधी, आदि इस क्षेत्र में रहते हैं। जनजातीय संस्कृति, आदिवासी मेलों और त्योहार यहाँ से रोज़मर्रा के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। यहाँ के लोगों का पहनावा एकदम पारंपरिक है, पुरुष धोती , कुर्ता , पगड़ी और चमड़े का जूता अतः भंदायी पहनते है और महिलाएं साड़ी पहेनती हैं। अत्करिया पारंपरिक जूते है। बिछिया , करधन या कमर बंद , पर्पत्ति या कोण बैंड , फूली या चांदी की बालियों जैसे गहने यहाँ की महिलाएं पहनती हैं। त्योहारों को धूम धाम से मनाना उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

महासमुंद में और आसपास के पर्यटक स्थल

महासमुंद में और आसपास पर्यटकों के आकर्षण में, लक्ष्मण मंदिर, आनंद प्रभु कुडी विहार , भाम्हिनी की स्वेत गंगा, खाल्लारिमाथा मंदिर , घुधरा ( दलदली ) , चंडी मंदिर ( बिरकोनी ) , चंडी मंदिर ( गुछापाली) , स्वास्तिक विहार , गंधेस्वर मंदिर , खल्लारी माता मंदिर आदि है।

महासमुंद तक कैसे पहुंचे

सड़क मार्ग, रेल और हवाई यात्रा कर बड़ी ही आसानी से महासमुंद तक  जाया जा सकता है। 

जशपुर (Jashpur)

जशपुर, पहाड़ी इलाकों और हरी - भरी हरियाली से घिरा स्‍थान है जो छत्‍तीसगढ़ के उत्‍तर - पूर्वी हिस्‍से में स्थित है। पहाड़ी इलाके को ऊपरी घाट के नाम से और समतल क्षेत्रों को कुछ पहाड़ों के साथ नीचे घाट के नाम से जाना जाता है। ऊपरी घाट, एक पठार का हिस्‍सा है जिसे पैट के नाम से जाना जाता है। यहां दो मुख्‍य घाट है जिनके नाम है : झंडा घाट और भेलाघाट।  जशपुर नगर एक शहर है जो छोटानागपुर पठार क्षेत्र में स्थित है। कुनकुरी यहां का सबसे गर्म क्षेत्र है और पंड्रापत यहां का सबसे ठंडा क्षेत्र है जो रेड कॉरीडोर के तहत आता है।

जशपुर और उसके आसपास स्थित पर्यटन स्‍थल

इस क्षेत्र में कई सुंदर झरने और प्रकृति का आनंदमय सुख देने वाले अन्‍य सुंदर स्‍थल है। राजपुरी झरना, कैलाश गुफा, दानपुरी झरना, रानी दाह झरना, भेरिंगराज झरना, कैथेड्रल कुनकुरी, धामेरा झरना, कुडियारानी की गुफा, सांप का पार्क, सोगृह अघोर आश्रम, बादलखोल अभयारण्‍य, गुल्‍लु झरना, चौरी झरना, रानी झूला, बाने झरना, हारा दीपा, लोरो घाटी, बेल महादेव, आदि इस क्षेत्र के प्रमुख आकर्षणों में से है।

जशपुर का मौसम

जशपुर एक ऊंचे पठार पर स्थित है जहां जलवायु साल भर सुखद रहती है।

जशपुर तक कैसे पहुंचे

जशपुर तक हवाई, ट्रेन और सड़क यात्रा के द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है।


राजधानी रायपुर (Raipur : Capital of Chhattisgarh)

छत्तीसगढ़ की राजधानी, रायपुर छत्तीसगढ़ में तेज़ी से बढ़ते हुए शहरों में से एक है और एक पर्यटन केंद्र भी है। अकसर ’भारत का धान का कटोरा’ कहा जाने वाला रायपुर अपने औद्योगिक विकास और पर्यटन के मामले में एक उभरता हुआ शहर है।

रायपुर में और इसके आसपास के पर्यटन स्थान
रायपुर इस इलाके के उन स्थानों में से एक है जहाँ आप छुट्टियों का मज़ा ले सकते हैं। हालांकि, पहले पर्यटक इस शहर में होने वाली पर्यटन गतिविधियों से अनभिज्ञ थे, लेकिन अब विदेशियों और अन्य पर्यटकों के बीच रायपुर लोकप्रियता हासिल कर रहा है। रायपुर में अनेक प्रकार के पर्यटन आकर्षण हैं। उनमें से कुछ हैं- दूधधारी मठ, महंत घासीदास संग्रहालय, विवेकानंद सरोवर, विवेकानंद आश्रम, शादानी दरबार और फिंगेश्वर। यह शहर वास्तु स्मारकों और पुरानी इमारतों के खंडहरों के लिए प्रसिद्ध है जो दुनियाभर के पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।
नगर घड़ी शहर के बीचोंबीच स्थित एक गाने वाली घड़ी है जो हर घंटे पर बजने से पहले छत्तीसगढ़ का स्थानीय लोकसंगीत बजाती है। राजीव गांधी वैन और उर्जा भवन एक अन्य दिलचस्प जगह है जहाँ सभी उपकरण सौर उर्जा से चलते हैं।
पालारी, शहीद स्मारक भवन, महावीर पार्क, पुखौती मुक्तांगन संग्रहालय, महाकौशल कला परिषद, चंद्रखुरी औरा गिरोधपुरी अन्य आकर्षण स्थान हैं।
रायपुर के इतिहास की एक झलक

पहले समय में रायपुर मध्य प्रदेश का एक हिस्सा था और उस समय यह शहर इंदौर के बाद राज्य का प्रमुख व्यावसायिक केंद्र था। इस जगह की आय का प्रमुख स्रोत कृषि प्रसंस्करण, इस्पात, सीमेंट, मिश्रधातु, पोहा और चावल थे। अब यह शहर कोयला, बिजली, प्लाईवुड, स्टील और एल्यूमीनियम के अपने समृद्ध उद्योगों के कारण छत्तीसगढ़ के औद्योगिक स्थल के रूप में उभरा है।
रायपुर के लोग और संस्कृति

देश के उत्तरपूर्वी भाग की एक छोटी सी आबादी के साथ उत्तर भारतीय ओर दक्षिण भारतीय, पारंपरिक छत्तीसगढ़ी लोग रायपुर के मूल निवासी हैं। ओडिशा(उड़ीसा) के पास होने के कारण इस क्षेत्र में उडि़या भाषा बोली जाती है। स्थानीय त्योहार जैसे हरेली, पोला ओर तीज रायपुर में मनाए जाने वाले प्रमुख त्योहार हैं।
रायपुर की यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय

रायपुर की यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय सर्दियों के दौरान होता है जो अक्टूबर से मार्च तक होती हैं।

कोरिया

कोरिया जिले, मध्य भारत में छत्तीसगढ़ राज्य के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में एक जिला है। जिले के प्रशासनिक मुख्यालय बैकुंठपुर है। यह सरगुजा जिले, पूर्व में कोरबा जिले, दक्षिण में मध्य प्रदेश के सीधी जिले के उत्तर में घिरा है, और मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले के पश्चिम में है। जिला छत्तीसगढ़ जिला का अब एक हिस्सा मध्य प्रदेश राज्य में 25 मई 1998 को अस्तित्व में आया।

इतिहास के अनुसार, लिटिल 16 वीं सदी से पहले क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। कोरिया ब्रिटिश साम्राज्य की एक रियासत थी; कोरिया जिले के भीतर रखे अन्य रियासत चांग भाकर था। 1947 में भारत की आजादी के बाद, कोरिया और चांग भाकर के शासकों 1 जनवरी 1948 को भारत के संघ को स्वीकार कर लिया और दोनों मध्य प्रदेश राज्य के सरगुजा जिले का हिस्सा बना दिया गया था।


झीलों, नदियों की और कई उच्च पानी के शांत पानी की दृष्टि नीले आकाश के रंग को दर्शाती गिर जाता है और कभी-कभी मँडरा बादलों ओवरहेड आगंतुकों के लिए एक बँध अनुभव देता है। सही अर्थों में प्रकृति का आनंद लेने की इच्छा रखने वाले प्रकृति के सच्चे प्रेमियों के इस छिपे हुए स्वर्ग उन्हें स्वागत करते हैं। कोरिया के पर्यटकों के आकर्षण के कुछ अमृत धारा झरने, रामदहा झरने और गवार घाट झरने हैं।

कोरिया - संस्कृति

तीन समुदाय नृत्य, कर्मा, सैला और शक नृत्य विभिन्न त्योहारों के दौरान जिले में मुख्य रूप से मनाया जाता है। जैसे दीपावली, दशहरा और होली के रूप में भारत के मुख्य त्योहार भी कोरिया जिला में मनाया जाता है। कुछ अन्य त्योहारों में भी इस तरह गंगा दशेरा, चर्ता, नवखे  और सरहुल  के रूप में कोरियाई समुदायों के बीच खास हैं।

कोरिया तक कैसे पहुंचे

कोरिया रेल और सड़क मार्ग से राज्य के प्रमुख शहरों के लिए अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। शहर में अच्छी तरह से रेल और सड़क सेवा के माध्यम से जुड़ा हुआ है।

कोरिया यात्रा करने के लिए सबसे अच्छा समय

सर्दियों के दौरान मौसम बहुत ही सुखद और पर्यटन स्थलों का भ्रमण प्रयोजनों के लिए आदर्श के रूप में है कोरिया यात्रा करने के लिए सबसे अच्छा समय है, सर्दियों के दौरान किया जाएगा।

Thursday, January 21, 2016

सियादेवी बालोद (Siyadevi,Balod)

छत्तीसगढ़ अंचल में दुर्ग संभाग के बालोद जिले – गुरुर तहसील से धमतरी मार्ग में ग्राम सांकरा (बालोद से 25 कि. मी. दूर ) से दक्षिण की ओर 7 कि. मी. कि दूरी पर देव स्थल ग्राम नारागांव स्थित हैं !


शक्ति – सौन्दर्य का अनोखा संगम अपने अप्रतिम प्राक्रतिक सौन्दर्य से पर्यटकों का मन मोह लेती हैं, दंडकारण्य पर्वत से प्रारंभ होकर गंगा मैया झलमला से बड़-भूम वन मार्ग में 17 कि.मी.पर हैं, दुर्ग जिले के एक मात्र प्राक्रतिक जल प्रपात एवं गुफ़ाओ के कारण नारागांव स्थित सियादेवी स्थल आध्यत्म एवं पर्यटक स्थल के रूप में प्रसिद्ध हैं !


वनाच्छादित यह पहाड़ी स्थल प्राक्रतिक जल स्त्रोतो के कारण और भी मनोहारी दिखाई पड़ता हैं ! इस पहाड़ी पर दो स्थानों से जल स्त्रोतों का उद्गम हुआ हैं


पूर्व दक्षिण से आने वाला झोलबाहरा और दक्षिण पश्चिम से आने वाला तुमनाला का संगम देखते ही बनता हैं, इसी स्थल पर देवादिदेव महादेव का पवित्र देव स्थल शोभायमान हैं, संगम स्थल से कल कल करती जालधारा मात्र 100 मी. कि दूरी पर एक प्राक्रतिक झरने के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं इस झरने कि उचाई 50 फीट हैं इतनी ऊँचाई से पानी का चट्टानों पर गिरकर कोहरे के रूप में परिवर्तित हो जाना इसके प्राक्रतिक सौंदर्य को परिलाझित करती हैं ! पास ही स्थित वाल्मीकि आश्रम से वाल्मीकि जी इस द्रश्य को निहारते प्रतीत होते है

बालोद से 25 किमी. दूर पहाड़ी पर स्थित सियादेवी मंदिर प्राकृतिक सुंदरता से शोभायमान है जो धार्मिक पर्यटन स्थल कहा जाता है। यहां पहुंचने पर झरना, जंगल व पहाडो से प्रकृति की खूबसूरती का अहसास होता है। इसके अलावा रामसीता लक्ष्मण, शिव पार्वती, हनुमान, राधा कृष्ण, सियादेवी, भगवान बुद्ध, बुढादेव की प्रतिमाएं है। यह स्थल पूर्णत: रामायण की कथा से जुडा हुआ है।

ऐसा माना जाता है कि त्रेता युग में भगवान्‌ रामसीता माता और लक्षमण वनवास काल में इस जगह पर आये थे|यहाँ सीता माता के चरण के निशान भी चिन्हित किये गए हैं। बारिस में यह जगह खूबसूरत झरने की वजह से अत्यंत मनोरम हो जाती है। झरने को वाल्मीकि झरने के नाम से जाना जाता है। परिवार के साथ जाने के लिए यह बहुत बेहतरीन पिकनिक स्पाट है। यहाँ जाने का सबसे अच्छा समय जुलाई से फरवरी तक है|


विष्णु मंदिर,जांजगीर (Vishnu Temple,Janjgir)

छत्तीसगढ़ के इस दक्षिण कोशल क्षेत्र में कल्चुरी नरेश जाज्वल्य देव प्रथम ने भीमा तालाब के किनारे ११ वीं शताब्दी में एक मंदिर का निर्माण करवाया था। यह मंदिर भारतीय स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। मंदिर पूर्वाभिमुखी है, तथा सप्तरथ योजना से बना हुआ है। मंदिर में शिखर हीन विमान मात्र है। गर्भगृह के दोनो ओर दो कलात्मक स्तंभ है जिन्हे देखकर यह आभास होता है कि पुराने समय में मंदिर के सामने महामंडप निर्मित था। परन्तु कालांतर में नहीं रहा। मंदिर का निर्माण एक ऊँची जगती पर हुआ है।

इस मंदिर के निर्माण से संबंधित अनेक जनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं। एक दंतकथा के अनुसार एक निश्चित समयावधि (कुछ लोग इस छैमासी रात कहते हैं) में शिवरीनारायण मंदिर और जांजगीर के इस मंदिर के निर्माण में प्रतियोगिता थी। भगवान नारायण ने घोषणा की थी कि जो मंदिर पहले पूरा होगा, वे उसी में प्रविष्ट होंगे। शिवरीनारायण का मंदिर पहले पूरा हो गया और भगवान नारायण उसमें प्रविष्ट हुए। जांजगीर का यह मंदिर सदा के लिए अधूरा छूट गया। एक अन्य दंत कथा के अनुसार इस मंदिर निर्माण की प्रतियोगिता में पाली के शिव मंदिर को भी सम्मिलित बताया गया है। इस कथा में पास में स्थित शिव मंदिर को इसका शीर्ष भाग बताया गया है। एक अन्य दंतकथा जो महाबली भीम से जुड़ी है, भी प्रचलित है। कहा जाता है कि मंदिर से लगे भीमा तालाब को भीम ने पांच बार फावड़ा चलाकर खोदा था। किंवदंती के अनुसार भीम को मंदिर का शिल्पी बताया गया है। इसके अनुसार एक बार भीम और विश्वकर्मा में एक रात में मंदिर बनाने की प्रतियोगिता हुई। तब भीम ने इस मंदिर का निर्माण कार्य आरम्भ किया। मंदिर निर्माण के दौरान जब भीम की छेनी-हथौड़ी नीचे गिर जाती तब उसका हाथी उसे वापस लाकर देता था। लेकिन एक बार भीम की छेनी पास के तालाब में चली गयी, जिसे हाथी वापस नहीं ला सका और सवेरा हो गया। भीम को प्रतियोगिता हारने का बहुत दुख हुआ और गुस्से में आकर उसने हाथी के दो टुकड़े कर दिया। इस प्रकार मंदिर अधूरा रह गया। आज भी मंदिर परिसर में भीम और हाथी की खंडित प्रतिमा है।

Friday, January 15, 2016

20वें राष्ट्रीय युवा महोत्सव,नया रायपुर

20वें राष्ट्रीय युवा महोत्सव की झलकियां




























The ‪#‎IndianOceanBand‬ enchanted the audience with their music. People are matching the beats with their claps.
‪#‎NYF2016‬.






‎Chhattisgarh‬ participants performing folk dance at ‪#‎NYF2016‬







छेर छेरा पुन्‍नी : छत्‍तीसगढी त्‍यौहार

अन्न दान का महापर्व छेरछेरा को धूमधाम के साथ मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में यह पर्व नई फसल के खलिहान से घर आ जाने के बाद मनाया जाता है। इस दौरान लोग घर-घर जाकर लोग अन्न का दान माँगते हैं। वहीं गाँव के युवक घर-घर जाकर डंडा नृत्य करते हैं।


लोक परंपरा के अनुसार पौष महीने की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष छेरछेरा का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही बच्चे, युवक व युवतियाँ हाथ में टोकरी, बोरी आदि लेकर घर-घर छेरछेरा माँगते हैं। वहीं युवकों की टोलियाँ डंडा नृत्य कर घर-घर पहुँचती हैं। धान मिंसाई हो जाने के चलते गाँव में घर-घर धान का भंडार होता है, जिसके चलते लोग छेर छेरा माँगने वालों को दान करते हैं।

इन्हें हर घर से धान, चावल व नकद राशि मिलती है। इस त्योहार के दस दिन पहले ही डंडा नृत्य करने वाले लोग आसपास के गाँवों में नृत्य करने जाते हैं। वहाँ उन्हें बड़ी मात्रा में धान व नगद रुपए मिल जाते हैं। इस त्योहार के दिन कामकाज पूरी तरह बंद रहता है। इस दिन लोग प्रायः गाँव छोड़कर बाहर नहीं जाते।

इस दिन सभी घरों में आलू चाप, भजिया तथा अन्य व्यंजन बनाया जाता है। इसके अलावा छेर-छेरा के दिन कई लोग खीर और खिचड़ा का भंडारा रखते हैं, जिसमें हजारों लोग प्रसाद ग्रहण कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं। 

ज्योतिष  के अनुसार इस दिन अन्नपूर्णा देवी की पूजा की जाती है। जो भी जातक बच्चों को अन्न का दान करते हैं, वह मृत्यु लोक के सारे बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस दौरान मुर्रा, लाई और तिल के लड्डू समेत कई सामानों की जमकर बिक्री होती है। 

आज के दिन द्वार-द्वार पर 'छेरछेरा, कोठी के धान ल हेरहेरा' की गूँज सुनाई देगी। पौष पूर्णिमा के अवसर पर मनाए जाने वाले इस पर्व के लिए लोगों में काफी उत्साह है। गौरतलब है कि इस पर्व में अन्न दान की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। 

रामायण मंडलियों ने भी पर्व मनाने की खासी तैयारी की है और पंथी नृत्य करने वाले दल भी छेरछेरा का आनंद लेने तैयार हैं। पौष पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर राज्यपाल ने बधाई दी है। उन्होंने प्रदेशवासियों के जीवन में खुशहाली की कामना भी की है। 

यह उत्सव कृषि प्रधान संस्कृति में दानशीलता की परंपरा को याद दिलाता है। उत्सवधर्मिता से जुड़ा छत्तीसगढ़ का मानस लोकपर्व के माध्यम से सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए आदिकाल से संकल्पित रहा है।

पौष शुक्‍ल पूर्णिमा के दिन धान की मिसाई से निवृत छत्‍तीसगढ के गांवों में बच्‍चों की टोली घर घर जाती है और -

छेर छेरा ! माई कोठी के धान ला हेर हेरा !

का संयुक्‍त स्‍वर में आवाज लगाती है, प्रत्‍येक घर से धान का दान दिया जाता है जिसे इकत्रित कर ये बच्‍चे गांव के सार्वजनिक स्‍थल पर इस धान को कूट-पीस कर छत्‍तीसगढ का प्रिय व्‍यंजन दुधफरा व फरा बनाते हैं और मिल जुल कर खाते हैं एवं नाचते गाते हैं –


चाउंर के फरा बनायेंव, थारी म गुडी गुडी
धनी मोर पुन्‍नी म, फरा नाचे डुआ डुआ
तीर तीर मोटियारी, माझा म डुरी डुरी
चाउंर के फरा बनायेंव, थारी म गुडी गुडी !

तारा रे तारा लोहार घर तारा …….
लउहा लउहा बिदा करव, जाबो अपन पारा !
छेर छेरा ! छेर छेरा !
माई कोठी के धान ला हेर हेरा !