Thursday, December 31, 2015

माँ दंतेश्वरी मंदिर,दंतेवाडा(Maa Danteshwari Temple,Dantewada)

छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर से करीब तीन सौ अस्सी किलोमीटर दूर दंतेवाडा नगर स्थित है। यहां के डंकिनी और शंखिनी नदियों के संगम पर माँ दंतेश्वरी का मंदिर प्रस्थापित है। पुरातात्विक महत्व के इस मंदिर का पुनर्निर्माण महाराजा अन्नमदेव द्वारा चौदहवीं शताब्दी में किया गया था। आंध्रप्रदेश के वारंगल राज्य के प्रतापी राजा अन्नमदेव ने यहां आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी और माँ भुवनेश्वरी देवी की प्रतिस्थापना की। वारंगल में माँ भुनेश्वरी माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। एक दंतकथा के मुताबिक वारंगल के राजा रूद्र प्रतापदेव जब मुगलों से पराजित होकर जंगल में भटक रहे थे तो कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि माघपूर्णिमा के मौके पर वे घोड़े में सवार होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें और वे जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी, लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें। वरदान के अनुसार राजा ने वारंगल के गोदावरी के तट से उत्तर की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ की । राजा रूद्र प्रताप देव के अपने पीछे चली आ रही माता का अनुमान उनके पायल के घुँघरूओं से उनके साथ होने का अनुमान लगा कर आगे बढ़ता गया । राजिम त्रिवेणी पर पैरी नदी तट की रेत पर देवी के पैर पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब जाने के कारण बंद हो गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देखा तो देवी ने उसे अपने वचन का स्मरण कराया और आगे साथ चलने में असमर्थता जाहिर की । राजा बड़ा दुखी हुआ किंतु देवी ने उसे एक पवित्र वस्त्र देकर कहा कि ये वस्त्र जितनी भूमि ढकेगी वही तुम्हारे राज्य का क्षेत्र होगा । इस प्रकार राजा ने वस्त्र फैला कर जितने क्षेत्र को ढका वही क्षेत्र पवित्र वस्त्र के ढकने के कारण बस्तर कहलाया । तत्पश्चात देवी राजा रूद्र प्रताप के साथ वापस बड़े डोंगर तक आई और राजा का तिलक लगाकर राज्याभिषेक किया और ये कहकर अंतर्ध्यान हो गई कि मैं तुम्हे स्वप्न में दर्शन देकर बताऊँगी कि मैं कहाँ प्रकट होकर स्थापित हुँगी । तब वहाँ तुम मेरी पूजा अर्चना की व्यवस्था करना ! फरसगाँव के निकट ग्राम बड़े डोंगर में देवी दंतेश्वरी का प्राचीन मंदिर अवस्थित है । त्पश्चात राजा रूद्रप्रताप देव ने राज्य की राजधानी ग्राम मधोता में स्थापित की एवं कालांतर में उसके वंशज राजा दलपत देव ने स्थानांतरित कर जगदलपुर में की । आज भी राजवंश के नये सदस्य के राज्याभिषेक के लिए ग्राम मधोता से पवित्र सिंदूर लाकर राजतिलक किये जाने की परम्परा है ।



कुछ समय पश्चात माँ दंतेश्वरी ने राजा के स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मैं दंतेवाड़ा के शंकनी-डंकनी नदी के संगम पर स्थापित हूँ । कहा जाता है कि माई दंतेश्वरी की प्रतिमा प्राक्टय मूर्ति है एवं गर्भ गृह विश्वकर्मा द्वारा निर्मित है । शेष मंदिर का निर्माण कालांतर में राजा द्वारा निर्मित किया गया ।



दंतेश्वरी मंदिर के पास ही शंखिनी और डंकिन नदी के संगम पर माँ दंतेश्वरी के चरणों के चिन्ह मौजूद है और यहां सच्चे मन से की गई मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती है।

 दंतेवाड़ा में माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाएं हाथ में घंटी, पद्य और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है। यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप है। माई के सिर के ऊपर छत्र है, जो चांदी से निर्मित है। वस्त्र आभूषण से अलंकृत है। द्वार पर दो द्वारपाल दाएं-बाएं खड़े हैं जो चार हाथ युक्त हैं। बाएं हाथ सर्प और दाएं हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में है। इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान जो काले पत्थर के हैं। यहां भगवान गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित है। मंदिर के गर्भ गृह में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रवेश प्रतिबंधित है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरुड़ स्तम्भ से अड्ढवस्थित है। बत्तीस काष्ठड्ढ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। इसलिए गर्भगृह में प्रवेश के दौरान धोती धारण करना अनिवार्य होता है। मांई जी का प्रतिदिन श्रृंगार के साथ ही मंगल आरती की जाती है।


माँ दंतेश्वरी मंदिर के पास ही उनकी छोटी बहन माँ भुनेश्वरी का मंदिर है। माँ भुनेश्वरी को मावली माता, माणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। माँ भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है और लाखो श्रद्धालु उनके भक्त हैं। छोटी माता भुवनेश्वरी देवी और मांई दंतेश्वरी की आरती एक साथ की जाती है और एक ही समय पर भोग लगाया जाता है। लगभग चार फीट ऊंची माँ भुवनेश्वरी की अष्टड्ढभुजी प्रतिमा अद्वितीय है। मंदिर के गर्भगृह में नौ ग्रहों की प्रतिमाएं है। वहीं भगवान विष्णु अवतार नरसिंह, माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की प्रतिमाएं प्रस्थापित हैं। कहा जाता है कि माणिकेश्वरी मंदिर का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ। संस्कृति और परंपरा का प्रतीक यह छोटी माता का मंदिर नवरात्रि में आस्था और विश्वास की ज्योति से जगमगा उठता है।


सड़क मार्ग द्वारा -

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से देश के अन्य भागों से हवाई, रेल तथा सड़क मार्गों से सुव्यवस्थित जुड़ा हुआ है ! रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर से दंतेवाड़ा के लिए सड़क मार्ग द्वारा बहुतायत में लक्जरी स्लीपर बसों का संचालन होता है ! प्राइवेट टैक्सी द्वारा भी 7 घण्टे की यात्रा द्वारा रायपुर से पहँचा जा सकता है ! इसके अलावा आंध्र प्रदेश के विशाखापटनम , विजयवाड़ा एवं हैदराबाद से भी यह सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है । विशाखापटनम एवं हैदराबाद से सीधी नियमित बस सेवा है ।

रेल मार्ग द्वारा -

दुर्ग , रायपुर , भुवनेश्वर एवं हावड़ा से जगदलपुर तक सीधी रेल सेवा है जहाँ से उतरकर 90 किमी टैक्सी अथवा यात्रीबस द्वारा पहुँचा जा सकता है । विशाखापटनम से भी किरंदुल पैसेन्जर से सीधे दंतेवाड़ा पहुँचा जा सकता है ! इस मार्ग पर चलने वाली एक मात्र पैसेंजर विशाखापटनम से सुबह रवाना होती है जो कई भूमिगत सुरंगो और प्रकृति की सुरम्य वादियों के बीच 14 घंटों में अपना सफर तय करती है जो स्वयं में एक अद्भुत अनुभव है ।

महामाया मंदिर रतनपुर (Mahamaya Mandir,Ratanpur,Bilaspur)

भारत में देवी माता के अनेक सिद्ध मंदिर हैं, जिनमें माता के 51 शक्तिपीठ सदा से ही श्रद्धालुओं के लिए विशेष धार्मिक महत्व के रहे हैं। इन्हीं में से एक है छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में रतनपुर स्थित माँ महामाया देवी मंदिर। रतनपुर का महामाया मंदिर इन्हीं शक्तिपीठों में से एक है। शक्ति पीठों की स्थापना से संबंधित एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। शक्तिपीठ उन पूजा स्थलों को कहते हैं, जहां सती के अंग गिरे थे। पुराणों के अनुसार, पिता दक्ष के यज्ञ में अपमानित हुई सती ने योगबल द्वारा अपने प्राण त्याग दिए थे। सती की मृत्यु से व्यथित भगवान शिव उनके मृत शरीर को लेकर तांडव करते हुए ब्रह्मांड में भटकते रहे। इस समय माता के अंग जहां-जहां गिरे, वहीं शक्तिपीठ बन गए। इन्हीं स्थानों को शक्तिपीठ रूप में मान्यता मिली। महामाया मंदिर में माता का स्कंध गिरा था। इसीलिए इस स्थल को माता के 51 शक्तिपीठों में शामिल किया गया। बिलासपुर- कोरबा मुख्य मार्ग पर 25 कि.मी. पर स्थित आदिशक्ति महामाया देवी की पवित्र पौराणिक नगरी रतनपुर का इतिहास प्राचीन एवं गौरवशाली हैं। पौराणिक ग्रंथ महाभारत, जैमिनी पुराण आदि में इसे राजधानी होने का गौरव प्राप्त हैं। त्रिपुरी के कलचुरियो ने रतनपुर को अपनी राजधानी बनाकर दीर्घकाल तक छत्तीसगढ़ में शासन किया। इसे चर्तुयुगी नगरी भी कहा जाता हैं जिसका तात्पर्य है कि इसका अस्तित्व चारों युगों में विद्यमान रहा है। राजा रत्नदेव प्रथम ने मणिपुर नामक गांव को रतनपुर नाम देकर अपनी राजधानी बनाया।

श्री आदिशक्ति माँ महामाया देवी: लगभग 1000 वर्ष प्राचीन महामाया देवी का दिव्य एवं भव्य मंदिर दर्शनीय हैं। इसका निर्माण राजा रत्नदेव प्रथम द्वारा 11वी शताब्दी में कराया गया था। 1045 ई में राजा रत्नदेव प्रथम, मणिपुर नामक गांव में शिकार के बाद जहां रात्रि विश्राम एक वट वृक्ष पर किया, अर्धरात्रि में जब राजा की आँख खुली तब उन्होंने वट वृक्ष के नीचे अलौकिक प्रकाश देखा, यह देखकर चमत्कृत हो गये कि वहां आदिशक्ति श्री महामाया देवी की सभा लगी हुई हैं। इतना देखकर वे अपनी चेतना खो बैठे। सुबह होने पर वे अपनी राज -धानी तुम्मान खोल लौट गये और रतनपुर को अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया तथा 1050 ई में श्री महामाया देवी का भव्य मंदिर निर्मित कराया। मंदिर के भीतर महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी की कलात्मक प्रतिमांए विराजमान हैं। मान्यता है कि इस मंदिर में यंत्र-मंत्र का केन्द्र रहा होगा तथा रतनपुर में देवी सती का दाहिना स्कंध गिरा था भगवान शिव ने स्वयं आविर्भूत होकर उसे कौमारी शक्ति पीठ का नाम दिया था। जिसके कारण माँ के दर्शन से कुंवारी कन्याओं को सौभाग्य की प्राप्ति होती हैं। यह जागृत पीठ हैं जहां भक्तों की समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं। नवरात्रि पर्व पर यहां की छटा दर्शनीय होती हैं। इस अवसर पर श्रद्धालुओं द्वारा यहाँ हजारो की संख्या में मनोकामना ज्योति कलश प्रज्जवलित किये जाते हैं।
रतनपुर में हनुमानजी का नारी रूप प्राप्त होता है। आपने हनुमान जी को आज तक सिर्फ पुरूष रूप में देखा है तो एक हनुमान मंदिर हैं जहां हनुमान नारी रूप में हैं। हनुमान जी का यह मंदिर छत्तीसगढ़ के रतनपुर नामक स्थान में स्थित है। यह संसार का इकलौता मंदिर है जहां हनुमान जी की नारी प्रतिमा की पूजा होती है। माना जाता है कि हनुमान जी की यह प्रतिमा दस हजार साल पुरानी है। जो भी भक्त श्रद्धा भाव से इस हनुमान का दर्शन करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।
कहां से आए नारी रूपी हनुमान: इस क्षेत्र के लोग नारी रूपी हनुमान जी के विषय में कथा कहते हैं कि प्राचीन काल में रतनपुर के एक राजा थे पृथ्वी देवजू। राजा हनुमान जी के भक्त थे। राजा को एक बार कुष्ट रोग हो गया। इससे राजा जीवन से निराश हो चुके थे। एक रात हनुमान जी राजा के सपने में आए और मंदिर बनवाने के लिए कहा। मंदिर निर्माण का काम जब पूरा हो गया तब हनुमान जी फिर से राज के सपने में आए और अपनी प्रतिमा को महामाया कुण्ड से निकालकर मंदिर में स्थापित करने का आदेश दिया। हनुमान जी द्वारा बताये स्थान से राजा ने प्रतिमा को लाकर मंदिर में स्थापित कर दिया।
मूर्ति की विशेषता: हनुमान जी की यह प्रतिमा दक्षिणमुखी है। इनके बायें कंधे पर श्री राम और दायें पर लक्ष्मण जी विराजमान हैं। हनुमान जी के पैरों के नीचे दो राक्षस हैं। मान्यता है कि हनुमान की प्रतिमा को स्थापित करने के बाद राजा ने कुष्ट रोग से मुक्ति एवं लोगों की मुराद पूरी करने की प्रार्थना की। हनुमान जी की कृपा से राजा रोग मुक्त हो गया और राजा की दूसरी इच्छा को पूरी करने के लिए हनुमान जी सालों से लोगों की मनोकामना पूरी करते आ रहे हैं।

रतनपुर में स्थित अन्य प्रसिद्ध देवस्थली-
श्री काल भैरवी मंदिर: यहां पर काल भैरव की करीब 9 फुट ऊँची भव्य प्रतिमा विराजमान हैं। कौमारी शक्ति पीठ होने के कारण कालांतर में तंत्र साधना का केन्द्र था। बाबा ज्ञानगिरी ने इस मंदिर का निर्माण कराया था।

श्री खंडोबा मंदिर: यहां शिव तथा भवानी की अश्वारोही प्रतिमा विराजमान है। इस मंदिर का निर्माण मराठा नरेश बिंबाजी भोसले की रानी ने अपने भतीजे खांडो जी के स्मृति में बनवाया था। किवदंती है कि मणि मल्ल नामक दैत्यों के संहार के लिये भगवान शिव ने मार्तण्ड भैरव का रूप बनाकर सहयाद्री पर्वत पर उनका संहार किया था। खंडोबा मंदिर के पाश्र्व में प्राचीन एवं विशाल सरोवर दुलहरा तालाब स्थित हैं।

श्री महालक्ष्मी देवी मंदिर: कोटा मुख्य मार्ग पर इकबीरा पहाड़ी पर श्री महालक्ष्मी देवी का ऐतिहासिक मंदिर स्थित हैं। इसका निर्माण राजा रत्नदेव तृतीय के प्रधानमंत्री गंगाधर ने करवाया था। इसका स्थानीय नाम लखनीदेवी मंदिर भी हैं। यहाँ नवरात्रि के पर्व पर मंगल जवारा बोया जाता हैं तथा धार्मिक अनुष्ठान होते हैं।

जूना शहर तथा बादल महल: लखनी देवी मंदिर के आगे मुख्य मार्ग पर ऐतिहासिक जूना शहर नामक बस्ती स्थित है इसे राजा राजसिंह ने राजपुर के नाम से बसाया था। साथ ही उन्होंने यहाँ अपनी प्रिय रानी कजरा देवी के लिए यह बेजोड़ महल बनाया। इसमें सात मंजिले थी इसे सतखंडा महल भी कहा जाता है किन्तु वर्तमान में इसकी दो ही मंजिले शेष रह गयी है। महल के पास ही अस्तबल तथा जूनाशहर में कोकशाह द्वारा निर्मित कोको बावली एवं कंकन बावली हैं।

हजरत मूसे खां बाबा का दरगाह: यह जूना शहर की पहाड़ी पर स्थित प्राचीन एवं ऐतिहासिक दरगाह है जहां मुस्लिमों के अलावा बाकी धर्मों के इबादतगार भी मन्नतें मांगने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इसमें स्थित वृक्ष पर धागा बांधने से मन्नत पूरी होती है।

हाथी किला: रतनपुर बस स्टैण्ड के पास राजा पृथ्वी देव द्वारा निर्मित ऐतिहासिक हाथी किला का पुरावशेष स्थित हैं। यह किला चारों ओर से खाइयों से घिरा है। किले में चार द्वार सिंह द्वार, गणेश द्वार, भैरव द्वार, तथा सेमर द्वार बने हुए हैं। सिंह द्वार बायी ओर गंधर्व, किन्नर, अप्सरा एवं देवी देवताओं के साथ ही दशानन रावण अपना सिर काटकर यज्ञ करते हुए उत्कीर्ण हैं। इसके आगे एक विशाल प्रस्तर प्रतिमा है जिससे सिर एवं पैर का अंश शेष हैं। यह वीर गोपाल राय (गोपाल वीर) के नाम से जानी जाती हैं। यह कहा जाता है कि गोपाल वीर की वीरता से प्रभावित होकर मुगल बादशाह जहांगीर ने राजा कल्याण साय को अनेक उपाधियां दी तथा रतरपुर से लगान लेना बंद कर दिया था। इसके पश्चात गणेश द्वार हैं जहां हनुमान जी की प्रतिमा हैं। यहां से आगे जाने पर मराठा सामाज्ञी अनन्दी बाई द्वारा निर्मित लक्ष्मी नारायण मंदिर अवस्थित है। इसके आगे जगन्नाथ मंदिर स्थित है जिसका निर्माण राजा कल्याण साय ने करवाया था। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा एवं बलभद्र की प्रतिमा स्थापित हैं। साथ ही यहां भगवान विष्णु, राजा कल्याण साय तथा देवी अन्नापूर्ण की सुन्दर प्रतिमाएं भी हैं। इस मंदिर के पाश्र्व भाग में रनिवास एवं महल के अवशेष विद्यमान हैं। इस किले की अंतिम द्वार मोतीपुर की ओर है जहां बीस दुआरिया तालाब के किनारे राजा लक्ष्मण साय की 20 रानियां सती हुई थी। इन्हीं की स्मृति में यहां बीस दुआरिया मंदिर बनवाया गया है।

रामटेकरी: इस पहाड़ी पर श्री राम पंचायत का भव्य एवं ऐतिहासिक मंदिर स्थित हैं। गर्भगृह में भगवान राम, देवी सीता, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न की प्रतिमा, पंचायत शैली में विराजमान हैं। भगवान राम की प्रतिमा के अंगूठे से जल की धारा प्रवाहित होती है। साथ ही सभा मण्डप में भगवान विष्णु तथा हनुमान जी की प्रतिमा हैं। सभागृह के आगे रानी अनन्दी बाई द्वारा निर्मित राजा बिंबाजी का मंदिर है।

वृद्धेश्वर महादेव मंदिर: रामटेकरी के नीचे की ओर राजा पृथ्वीदेव द्वितीय द्वारा निर्मित यह मंदिर अत्यंत ही अद्भुत है। यहां विराजित शिवलिंग स्वयंभू है। स्थानीय लोगो में यह बूढ़ा महादेव के नाम से प्रसिद्ध हैं।

गिरजावर हनुमान मंदिर: रामटेकरी मार्ग में पूर्व दिशा की ओर राजा पृथ्वी देव द्वितीय द्वारा निर्मित सिद्ध दक्षिणमुखी हनुमान जी का ऐतिहासिक मंदिर हैं। हनुमान जी की इस कलात्मक प्रतिमा में उनके कांधे पर श्री राम व लक्ष्मण बैठे हुए पैरों के नीचे अहिरावण दबा हैं। इसी परिसर में श्री रामजानकी तथा शिव मंदिर भी स्थित है।

कण्ठीदेवल मंदिर: श्री महामाया देवी मंदिर परिसर में श्री नीलकंठेश्वर महादेव का भव्य मंदिर स्थित है। इस मंदिर का पुन: निर्माण केन्द्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा कराया गया हैं। राष्ट्रीय धरोहर सूची में शामिल यह मंदिर 15वी शताब्दी में निर्मित है। इसके चार प्रवेश द्वार है तथा आस पास के क्षेत्रों से पायी प्रतिमाओं का अस्थायी संग्रहालय है तथा स्थायी संग्रहालय निर्माणधीन है।

बैरागवन एवं बीस दुवारिया मंदिर: श्री महामाया देवी मंदिर के पीछे कुछ दूरी पर आम्रकुंजो से घिरे बैरागवन में तालाब तथा इसके किनारे पर भगवान नर्मदेश्वर महादेव का मंदिर एवं दूसरी ओर राजा राजसिंह का भव्य स्मारक है जिसे बीस दुवारिया मंदिर कहते हैं। यह मंदिर मूर्ति विहिन हैं तथा 20 द्वार युक्त है। बैरागवन के पास ही खिचरी केदारनाथ का प्राचीन मंदिर स्थित है।
श्री रत्नेश्वर महादेव मंदिर: करैहांपारा में रत्नेश्वर तालाब के किनारे स्थित हैं। यह राजा रत्नदेव द्वारा स्थापित किया गया था। यहीं पर वेद-रत्नेश्वर तालाब के किनारे चार सौ वर्ष पुराना कबीर आश्रम है जिसकी स्थापना कबीर पंथ के श्री सुदर्शन नाम साहेब ने की थी।

भुवनेश्वर महादेव मंदिर: रतनपुर-चपोरा मार्ग पर कृष्णार्जुनी तालाब के किनारे यह प्राचीन मंदिर स्थित है। इस मंदिर में भगवान भास्कर (सूर्यदेव) की प्रतिमा भी स्थापित है तथा इसे सूर्यश्वर मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर एवं शिवलिंग ज्यामितीय आधार पर निर्मित है। गर्भगृह में प्रवेश द्वार पर शिलालेख उत्कीर्ण है।
खूंटाघाट बाँध: मनोहरी प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर यह बांध पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र हैं। भाद्रमास में गणेश चतुर्थी के दिन यहां मेला लगता है। इसका निर्माण अंग्रेजों के काल में हुआ। 1926 में यह बनकर तैयार हुआ। इस जलाशय के नीचे की ओर सुन्दर उद्यान है तथा ऊपर पहाड़ी पर रेस्ट हाऊस बना हुआ है। यह वाटर स्पोट्र्स की दृष्टि से उत्तम स्थान है।

अमृतधारा जलप्रपात,मनेन्द्रगढ़ (Amrithadhara Falls, Manendragarh)

अमृतधारा जल प्रपात छत्तीसगढ़ राज्य के कोरिया ज़िले में स्थित है। सम्पूर्ण भारत में कोरिया को प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है। इस ज़िले को प्रकृति ने अपनी अमूल्य निधियों से सजाया और सँवारा है। यहाँ चारों ओर प्रकृति के मनोरम दृश्य बिखरे पड़े हैं। इन्हीं में से एक 'अमृतधारा जल प्रपात' है, जो कि हसदो नदी पर स्थित है।

कोरिया ज़िला अपने पूरे घने जंगलों, पहाड़ों, नदियों और झरनों से भरा पड़ा है। अमृतधारा प्रपात कोरिया में सबसे प्रसिद्ध प्रपातों मे से एक है। छत्तीसगढ़ में कोरिया भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान एक रियासत थी। अमृतधारा जल प्रपात एक प्राकृतिक झरना है, जहाँ से हसदो नदी का जल गिरता है। यह झरना मनेन्द्रगढ़-बैकुन्ठपुर सड़क पर स्थित है। भारत के छत्तीसगढ़ में अमृतधारा प्रपात कोरिया ज़िले में है, जिसका जल 90 फीट की ऊंचाई से गिरता है। वह बिंदु जहाँ पानी गिरता है, वहाँ एक बड़ा ही प्यारा-सा बादल के जैसा माहौल चारों ओर बन जाता है, जिससे प्रपात की सुन्दरता में चार चाँद लग जाते हैं।

अमृतधारा जल प्रपात एक बहुत ही शुभ शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इस जगह के आस-पास एक बहुत प्रसिद्ध मेला हर साल आयोजित किया जाता है। मेले का आयोजन रामानुज प्रताप सिंह जूदेव, जो कोरिया राज्य के राजा थे, ने वर्ष 1936 में किया गया था। महाशिवरात्रि के उत्सव के दौरान इस जगह मे मेले का आयोजन होता है, जिस दौरान यहाँ लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ उपस्थित होती है।

पिकनिक व सैर-सपाटे के लिए भारी संख्या में लोग इस स्थान पर आते हैं। लोग यहाँ परिवार के साथ पिकनिक का अनुभव लेने आते है। पर्यटन स्थल तक जाने के लिए पक्की सड़क है। रैलिंग, पैगोडा रेस्ट हाउस का निर्माण भी कराया गया है। इसे देखने दूर-दूर से सैलानी प्रतिवर्ष आते रहते हैं। इस पर्यटन स्थल का ऐतिहासिक महत्व भी है। यहाँ हनुमान व भगवान शिव के मंदिर हैं, जो अपने प्रतिवर्ष लगने वाले मेलों के लिए भी प्रसिद्ध हैं।

प्रदेश की प्रथम विधानसभा भरतपुर सोनहत के अन्तर्गत आने वाले ग्राम पंचायत मेण्ड्रा स्थित मैकल की पहाडिय़ों से निकलकर हसदेव नदी पहले गौरघाट में एक जलप्रपात का रूप लेती है यह स्थल भी अपने आप में अद्वितीय है और कई विशेषताओं को अपने में समाहित किए हुए है। यहां गर्मियों में जिले के साथ ही साथ दूसरे जिलों के सैलानी भी अपने परिवार के साथ सुकून के दो पल बिताने के लिये यहां पहुंचते हैं।

इससे आगे चलकर कलकल बहती हुई हसदेव की निरमल धारा नागपुर के पास स्थित ग्राम पंचायत लाई में राष्ट्रीय राजमार्ग ४३ से लगभग ८ किमी दूर एक जलप्रपात के रूप में गिरती है जिसके सौन्दर्य के कारण इसका नाम अमृतधारा पड़ा। इस जलप्रपात का विहंगम दृश्य देखने के लिये न केवल छ.ग. वरन् मध्यप्रदेश के लोग भी यहां काफी संख्या में पहुंचते है।

अमृतधारा पहुँचने के लिए मनेन्द्रगढ़ से अंबिकापुर रोड में मनेन्द्रगढ़ से 18 किमी दूर लाई ग्राम आते हैं. लाई ग्राम से बाए तरफ अमृतधारा का रास्ता जाता है, जो 8 किमी के पहाड़ी रास्ते से होता हुआ अमृतधारा तक पहुँचता है. मनेन्द्रगढ़ से इसकी दूरी 25 किमी है. |

Wednesday, December 30, 2015

अड़भार प्राचीन नगर ,जांजगीर-चांपा (Adbhar,Janjgir-Champa)

अड़भार की मां अष्टभुजी आठ भुजाओं वाली है, ये बात तो अधिकांश लोग जानते हैं लेकिन देवी के दक्षिणमुखी होने की जानकारी कम लोगों को ही है। जांजगीर चांपा जिले में मुंबई हावड़ा रेल मार्ग पर सक्ती स्टेशन से दक्षिण पूर्व की ओर 11 किमी की दूरी पर स्थित अड़भार अष्टभुजी माता के मंदिर के नाम पर प्रसिद्ध है। लगभग 10 साल पहले यह गांव नगर पंचायत का दर्जा पाकर अब विकास की ओर अग्रसर है। यहां नवरात्र पर मां अष्टभुजी के दर्शन के लिए भक्तों का तांता लगता है। इस बार भी नवरात्रि में जिले के अलावा रायगढ़, बिलासपुर और कोरबा जिले के भक्त पहुंच रहे हैं। मंदिर में मां अष्टभुजी की ग्रेनाइट पत्थर की आदमकद मूर्ति है। आठ भुजाओं वाली मां दक्षिणमुखी भी है। इस संबंध में नगर के प्रफुल्ल देशमुख ने बताया कि पूरे भारत में कलकत्ता की दक्षिणमुखी काली माता और अड़भार की दक्षिणमुखी अष्टभुजी देवी के अलावा और कहीं की भी देवी दक्षिणमुखी नहीं है। जगत जननी माता अष्टभुजी का मंदिर दो विशाल इमली पेड़ के नीचे बना हुआ है।

आदमकद वाले काले ग्रेनाइड की दक्षिणमुखी मूर्ति के ठीक दाहिनी ओर डेढ़ फीट की दूरी में देगुन गुरू की प्रतिमा योग मुद्रा में बैठी हुई प्रतीत होती है। मंदिर परिसर में पड़े बेतरतीब पत्थर की बारिक नक्काशी देखकर हर आदमी सोचने पर मजबूर हो जाता है। प्राचीन इतिहास में अड़भार का उल्लेख अष्ट द्वार के नाम से मिलता है। अष्टभुजी माता का मंदिर और इस नगर के चारों ओर बने आठ विशाल दरवाजों की वजह से शायद इसका प्राचीन नाम अष्टद्वार रहा और धीरे धीरे अपभ्रंश होकर इसका नाम अड़भार हो गया। लगभग 5 किमी. की परिधि में बसा यह नगर कुछ मायने में अपने आप में अजीब है। यहां हर 100 से 200 मीटर में किसी न किसी देवी देवता की मूर्तियां सही सलामत न सही लेकिन खंडित स्थिति में जरूर मिल जाएंगी। आज भी यहां के लोगों को घरो की नींव खोदते समय प्राचीन टूटी फूटी मूर्तिया या पुराने समय के सोने चांदी के सिक्के प्राचीन धातु के कुछ न कुछ सामान अवश्य प्राप्त होते हैं।


नगर पंचायत अद्भर में भगवान नटराज, शिव (स्थानीय स्तर पर "मानभंजन सोरा" कहा जाता है) और मां अष्टभुजी मंदिर है, अद्भर की दूरी 10km सकती और खरसिया से है रायगढ़ (45 किमी पश्चिम), चंपा जांजगीर (45 किमी पूरब) और बिलासपुर से (100km पूर्व) दूरी पर स्थित है


मंदिर में आस्था के दीप
हर साल यहां चैत और चंर में नवरात्रि पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ सहित अन्य प्रदेशों से भी दर्शनार्थी यहां पहुंचते हैं। भक्त अनेक प्रकार की मन्नतें मांगते है । मन्नतें पूरी होने पर 'योत 'वारा जलवाते हैं।


छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण तीर्थस्थल अड़भार अष्टभुजी एक अति प्रचीन धार्मिक स्थान है। यह तीर्थस्थल आठ हाथों वाली एक देवी को समर्पित है। मंदिर का ज्योति कलश नवरात्रि के दौरान जला रहता है, जिससे इसकी सुंदरता और भी बढ़ जाती है।
अड़भार मंदिर की वास्तुशिल्पीय डिजाइन भी बेहद उत्कृष्ट है। साथ ही यह धार्मिक कृत्य और परंपराओं का मजबूती के साथ निर्वाह कर रहा है। छत्तीसगढ़ के हर हिस्से से अड़भार अष्टभुजीय आसानी से पहुंचा जा सकता है। इस कारण यहां बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं।


Tuesday, December 29, 2015

बचेली आकाशनगर दंतेवाडा (Bacheli AakashNagar Dantewada)

बचेली छत्तीसगढ़ प्रान्त के नवनिर्मित जिला दंतेवाडा के मुख्यालय दंतेवाडा से लगभग ३० कि. मी. दक्षिण में बसा एक छोटा शहर है |
इस शहर में नेशनल मिनेरल डेवेलोपमेंट कारपोरेशन (एन. एम. डी. सी.) कि एक इकाई बैलाडीला आयरन ओर डिपोसिट नंबर-५ और डिपॉज़िट नंबर-१०&११ए कार्यरत है | बचेली के पश्चिम में काफी बड़ा पहाड़ है जिसमें लोह अयस्क भरपूर मात्र में उपलब्ध है |
जगदलपुर से सड़क के रास्ते तीन घंटे में पहुंच सकते हैं बचेली। यहां आकाशनगर की खूबसूरत वादियां बाहें फैलाए पर्यटकों का स्वागत करती हैं। यहां दूर-दूर तक केवल हरियाली नजर आती है। बारिश के दिनों में इस इलाके का नैसर्गिक सौंदर्य देखते ही बनता है। समुद्र तल से करीब 3 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित बैलाडीला पर्वत श्रृंखला में नंदीराज को सबसे ऊंची चोटी माना जाता है। आकाशनगर इलाके में बादल जमीन को स्पर्श करते हुए दिखाई पड़ते हैं, जिसके चलते बरसात के मौसम में यहां दिन में भी कोहरा छाया रहता है। आसमान साफ होने पर दूर-दूर तक हरियाली ही नजर आती है। सर्पीली घाटियों से होकर आकाशनगर तक पहुंचना लोगों को रोमांचित करता है।
आकाश नगर, बचेली का जादू
यह प्रकृति है, या किसी चित्रकार की कल्पना,
यह सत्य है, या किसी कवि की रचना,
यह धुँध है, या बादलों का झुण्ड,
यह स्वर्ग है, या बचेली की जादू !!!

कुटुमसर की गुफा (Kutumsar Caves)

कुटुमसर की गुफा - छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र की इस गुफा में आदि काल के मानवों का निवास था। कहा जाता है कि यहां प्रागैतिहासिक काल के मानव रहा करते थे। वैज्ञानिकों के अनुसार करोड़ों वर्ष पहले यह क्षेत्र पानी में डूबा हुआ था। पानी के बहाव से ही यहां गुफाओं का निर्माण हुआ। कुटुमसर की गुफा  में गहरा अंधेरा है इसका आकार सर्पीला है विश्व की सबसे अधिक लंबी गुफाओं में इसे दूसरे नंबर पर आंका गया है। अंदर पानी के छोटे तालाब भी हैं।

प्रगैतिहासिक काल में कुटुमसर की गुफाओं में मनुष्य रहा करते थे। फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी अहमदाबाद, इंस्टीटयूट आफ पेलको बॉटनी लखनऊ तथा भूगंर्भ अध्ययन शाला लखनऊ के सम्मिलित शोध से यह बात सामने आई है। विश्व प्रसिध्द बस्तर की कुटुमसर की गुफाएं कई रहस्यों को अभी भी अपने में समेटे हुए है जिनका भूगर्भ शास्त्रियों द्वारा लगातार अध्ययन किया जा रहा है। भूगर्भशास्त्रियों का कहना है कि करोड़ों वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में कुटुमसर की गुफाऐं स्थित है वह क्षेत्र पूरा पानी में डूबा हुआ था। गुफाओं का निर्माण प्राकृतिक परिवर्तनों साथ-साथ पानी के बहाव के कारण हुआ। कुटुमसर की गुफाऐं जमीन से 55 फुट नीचे है। इनकी लंबाई 330 मीटर है। इस गुफा के भीतर कई पूर्ण विकसित कक्ष है जो 20 से 70 मीटर तक चौड़े है। फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी अहमदाबाद के शोधकर्ताओं ने इन्हीं कक्षों के अध्ययन के बाद निष्कर्ष पर पहुंचे है कि करोड़ों वर्ष पूर्व यहां के आस पास के लोग इन गुफाओं में रहा करते थे। संभवत: यह प्रगैतिहासिक काल था। चूना पत्थर से बनी कुटुमसर की गुफाओं के आंतरिक और बाह्य रचना के अध्ययन के उपरांत भूगर्भशास्त्री कई निष्कर्ष  पर पहुंचे हैं। उदाहरण के लिये चूना पत्थर के रिसाव कार्बनडाईक्साइउ तथा पानी की रासायनिक क्रिया से सतह से लेकर छत तक अद्भूत प्राकृतिक संरचनायें गुफा के अंदर बन चुकी हैं।

तीरथगढ़ से 10 किलोमीटर की दूरी पर विश्व प्रसिद्ध कोटमसर की प्राकृति गुफाएं स्थित है। विष्व की सबसे लम्बी इस गुफा की लंबाई 4500 मीटर है। चूना पत्थर के घुलने से बनी ये गुफाएं चूनापत्थर के जमने से बनी संरचनाओं के कारण प्रसिद्ध है। चूनापत्थर के जमाव के कारण स्टलेगटाईट, स्टलेगमाईट एवं ड्रिपस्टोन जैसी संरचनायें बन जाती हैं। छत पर लटकते झूमर स्टलेग्टाईट, जमीन से ऊपर जाते स्तंभ स्टलेगमाईट एवं छत एवं जमीन से मिले बड़े-बड़े स्तंभ ड्रिप स्टोन कहलाते हैं। डॉ.शंकर तिवारी ने प्रथम बार इस गुफा का वर्णन किया था। इस गुफा में छोटे-छोटे पोखर स्थित हैं जिनमें पायी जाने वाली छोटी-छोटी मछलियों की आखें नहीं पायी जातीं वेज्ञानिकों का मानना है कि सदियों से अंधेरे में रहने के कारण इनकी आखों की उपयोगिता खत्म हो गई एवं अब ये जन्म से ही अंधी पैदा होती हैं जोकि डार्विन के सिद्धांत की पुष्टी करती है

बैलाडीला (Bailadila)

बैलाडीला में लौह अयस्क का खनन देखना भी अद्भुत अनुभव होता है। बचेली एवं किरंदूल में एन.एम.डी.सी. की खदाने हैं। यहाँ प्छज्न्ज्ञ एवं च्तवरमबज गेस्ट हाऊस में रूका जा सकता है। लौह अयस्क की खदानों को देखने के लिये अनुमति लेना आवष्यक है। बचेली की खदानें टाउनषिप से 25 किलोमीटर दूर हैं। यहाँ का अयस्क अच्छे ग्रेड का माना जाता है इसमें लोहे का प्रतिषत 86 तक रहता है।

 बैलाडि‍ला पर्वत श्रृंखला में उच्च गुणवत्ता के लौह अयस्क की 14 खदानें हैं जो बैलाड़िला की पहचान बन चुकी हैं। इस पर्वत श्रृंखला का आकार बैल के कूबड़ के समान है। इसी कारण इसका नाम बैलाडि‍ला रखा गया है। यहां पाई जाने वाली खदानें इसकी अर्थव्यवस्था में मुख्य भूमिका अदा करती हैं। इसलिए सरकार ने पूर क्षेत्र को दो औद्योगिक क्षेत्रों में विभाजित कर दिया है। इन क्षेत्रों के नाम बचेली और किरनडुल हैं। दांतेवाड़ा से बचेली 29 कि.मी और किरनडुल 41 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।बैलाडि‍ला की खदानें पर्वत श्रृंखला की सबसे ऊंची चोटी आकाश नगर पर स्थित हैं। इसकी यात्रा पर जाने से पहले पर्यटकों को राष्ट्रीय खनिज विकास निगम की अनुमति लेनी पड़ती है। बचेली से आकाश नगर तक 22 कि.मी. लंबा घाट रोड बना हुआ है। आकाश नगर तक के रास्ते में पर्यटक सर्पीली राहों से गुजरते हुए खूबसूरत दृश्य देख सकते हैं।आकाश नगर की भांति किरनडुल से कैलाश नगर तक भी 12 कि.मी. लंबा घाट रोड बना हुआ है। यहां यात्रा के दौरान पर्यटक नीली रेत देख सकते हैं। दांतेवाड़ा से बचेली और किरनडुल के लिए नियमित रूप से बस सेवा है। बसों के अलावा पर्यटक टैक्सी द्वारा भी यहां तक आसानी से पहुंच सकते हैं। 


नारायणपाल का विष्णु मंदिर(Narayanpal Vishnu Temple)

बस्तर जिले के विकास खण्ड बस्तर में जगदलपुर से करीब 80 किलोमीटर दूर छिंदक नागवंषी राजा धारावर्श की रानी गुण्डमहादेवी द्वारा इस मंदिर को ई.सन 1111 में बनवाया गया। गुण्डमहादेवी का पुत्र सोमेष्वर देव एक प्रतापी राजा था। मंदिर के पूर्ण होते-होते धारावर्श एवं सोमेष्वर देव दिवंगत हो चुके थे एवं गुण्डमहादेवी के पौत्र छिंदक नागवंषी राजा कन्हर देव का षासन था। गुण्ड महादेवी और उसकी बहु सोमेष्वर देव की रानी के षिलालेख यहाँ पर हैं। नारायण पाल का यह मंदिर पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक है एवं छिंदक नागवंषी षासन के समय की जानकारी प्राप्त करने का मुख्य स्त्रोत भी है। निारयणपाल के विश्णु मंदिर में स्थापित गुण्डमहादेवी के षिला लेख एवं गर्भगृह में स्थापित भगवान विश्णु की प्रतिमा

बारसूर (Barsoor)

दंतेवाड़ा से 34 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बारसूर तक पहुँचने के लिये गीदम से होकर जाना पड़ता है। बारसूर गीदम से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ गणेश जी की विशाल मूर्ती है। बारसूर नाग राजाओं एवं काकतीय शासकों की राजधानी रहा है। बारसूर ग्यारहवीं एवं बारहवीं षताब्दी के मंदिरो के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के मंदिरों में मामा-भांजा मंदिर मूलतः शिव मंदिर है। मामा-भंजा मंदिर दो गर्भगृह युक्त मंदिर है इनके मंडप आपस में जुड़े हुये हैं।यहाँ के भग्न मंदिरों में मैथुनरत प्रतिमाओं का अंकन भी मिलता है। इतिहासकार एवं विख्यात शिक्षाविद डॉ.के.के.झा के अनुसार यह नगर प्राचीन काल में वेवष्वत पुर के नाम से जाना जाता था। चन्द्रादित्य मंदिर का निर्माण नाग राजा चन्द्रादित्य ने करवाया था एवं उन्हीं के नाम पर इस मंदिर को जाना जाता है। बत्तीस स्तंभों पर खड़े बत्तीसा मंदिर का निर्माण बलुआ पत्थर से हुआ है। इसका निर्माण गंगमहादेवी ने सोमेष्वर देव के शासन काल में किया। इस मंदिर में षिव एवं नंदी की सुन्दर प्रतिमायें हैं। एक हजार साल पुराने इस मंदिर को बड़े ही वैज्ञानिक तरीके से पत्थरों को व्यवस्थित कर बनाया गया है। ये मंदिर आरकियोलाजी विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक हैं। गणेष भगवान की दो विशाल बलुआ पत्थर से बनी प्रतिमायें आष्चर्य चकित कर देती है। मामा-भांजा मंदिर शिल्प की दृश्टि से उत्कृष्ट एवं दर्शनीय है।

केशकाल घाटी (Keshkal Valley)

रायपुर से दंतेवाड़ा सड़क मार्ग पर बस्तर संभाग के प्रवेश द्वार पर स्वागत करने कांकेर की विषाल पहाड़ियां तत्पर दिखाई देती है। कांकेर से 22 किलोमीटर आगे प्रारंभ होती है केशकाल की मनोरम घाटी। हेयर पिन मोड़ लिये हुये यह मनोरम घाटी पर्यटकों का मन मोह लेती है। घाटी के बाद दण्डकारण्य का पठार प्रार्। पंचवटी के विश्रामगृह एवं वाचिंग टावर से केशकाल घाट का मानोरम दृश्य दिखाई पड़़ता है। एकाएक तो यह एहसास ही नहीं होता कि हम मैदानी क्षेत्र के दृष्यों को देख रहे हैं। दूर-दूर तक फैली पर्वत मालायें। हरी चादर में लिपटी सुन्दर वसुन्धरा, बादलों के पर्वतों से टकराते झुण्ड हमें मानों हिमालय पर्वत सा एहसास कराते हैं। बस्तर की वास्तविक सीमा यहीं से षुरू होती है।

अरण्यक गुफा(Aranyak Caves)

कांगेर घाटी से लगी इस गुफा में जाधरा झांपी और मकर कक्ष की अवषैल संरचनाएं देखते बनती है।

दण्डक गुफा (Dandak Caves)

कोटमसर से 8 किलोमीटर की दूरी पर सिथत है। इस गुफा में भी कोटमसर गुफा के समान ही स्टलेगटाईट, स्टलेगमाईट एवं ड्रिपस्टोन जैसी संरचनायें भव्य स्वरूप प्रदान करती है।

कैलाश गुफा (Kailash Caves)

कोटमसर से 16 किलोमीटर की दूरी पर कैलाश गुफा स्थित है। इसके बड़े-बड़े हाल किसी राजा के दरबार सा भान देते हैं एवं चूना पत्थर की आकृतियां शिवलिंग के समान जान पड़ती हैं । इसलिये इस गुफा का धार्मिक महत्व भी हैं। यहाँ महाशिवरात्रि के दिन भक्तों का तांता लगा रहता है। यह गुफा 50 मीटर की ऊँचाई पर 2500 मीटर लम्बी है।

खुटाघाट बांध,बिलासपुर (Khuta Ghat,Bilaspur)

खुटाघाट बांध का परिचय:
छत्तीसगढ़ के पूरे क्षेत्र में धान का कटोरा 'या' राइस ऑफ बाउल इसका क्रेडिट छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले को दिया जाता है। इस जिले की अनूठी विशेषताओं में चावल, कोसा उद्योग और अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि कोर्स की गुणवत्ता परिष्कृत के कारण यह बहोत ही प्रसिद्ध हैं। 400 साल की उम्र के आसपास, बिलासपुर के शहर से देश भर में अपनी आकर्षक पर्यटन स्थलों और स्मारकों और पवित्र स्थानों का भंडार शामिल हैं, जो यात्रियों को आकर्षित बहोत करती है। इनमें से भारत के छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले मे खुटाघाट बांध व्यापक रूप से अपनी सुंदरता और आगंतुकों के लिए उत्कृष्ट मनोरंजन के अवसरों की पेशकश के लिए प्रशंसित है। 

खुटाघाट बांध का विवरण:
बिलासपुर खुटाघाट बांध हर पर्यटक के साथ प्रसिद्ध है। यह रतनपुर खंडहर के लिए मशहूर शहर से 12 किमी की दूरी पर स्थित है। खुटाघाट बांध खरून नदी के शांत किनारे पर एक बांध का निर्माण किया है और पूरे क्षेत्र की सिंचाई की प्रक्रिया में मदद करता है। 
अगर आप खुटाघाट बांध का भ्रमण करते है तो आप इसके बेदाग सुंदरता से मुग्ध हो जाएगा। और आसपास के जंगल और पहाड़ियों इस बांध के लिए एक अतिरिक्त आकर्षण का बढ़ावा है। और यह एक सुंदर पिकनिक स्थल है जहा हर साल हजारो पर्यटक आते है इस सुंदर दृश्य का दर्शन करने। 


इस सुंदर दृश्य के मध्य का मन्दिर खूंटाघाट बाँध में हर साल पानी कम होते तक करीब छह माह डूबा रहता है ये बाँध 1930 में अंग्रेजों ने बनाया था..मदिंर की मजबूती आज भी बरकार है,,यदि आज किसी ने सरकारी ठेके पर बनाया होता तो क्या होता |







[छतीसगढ़ के बिलासपुर जिले का बांध,खारंग नदी पर बने इस बांध का नाम संजयगाँधी  बाद में किया गया ,, ये पिकनिकस्पाट है]


खूंटाघाट नाम की एक कहानी

जब बांध बना डूबन के जंगल को काटा नहीं गया । तब जंगल या लकड़ी की कीमत न थी । पानी में बाद इसके ठूंठ या जिसे खूंटा कहते वो पानी में बचे रह गये । ये मछली पकड़ने गयी नाव से टकराते ।कालान्तर में इसलिए इसे खूंटाघाट कहा गया । इनमें आखिरी पेड़ तेंदू के थे । उनके बीच तेंदूसार सुंदर काला था । जब जब बांध सूखता लोग इसको कटते तो मजबूत इतना की कुल्हाड़ी को झटका लगता। इसकी सुंदर मजबूत छड़ी बनती । आसपास के गाँव के सम्पन्न जन इस काली छड़ी में चांदी या पीतल की मूठ लगा कर शान से आज भी रखें हैं ।



कैसे पहुचे
बिलासपुर से आप आसानी से बिलासपुर-अंबिकापुर हाईवे से  होते हुए खूटाघाट पहुंच सकते है|

Monday, December 28, 2015

लक्ष्मणेश्वर महादेव – खरौद (Laxmaneshwar Mandir,Kharod)

लक्ष्मणेश्वर महादेव – खरौद (Laxmaneshwar Mandir,Kharod)

लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर जो की शिवरीनारायण से 3 किलोमीटर और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 120 किलोमीटर दूर खरौद नगर में स्तिथ है। कहते है की भगवन राम ने यहाँ पर खर व दूषण का वध किया था इसलिए इस जगह का नाम खरौद पड़ा।  खरौद नगर में प्राचीन कालीन अनेक मंदिरों की उपस्थिति के कारण इसे छत्तीसगढ़ की काशी भी कहा जाता है। मंदिर स्थापना से जुडी किवदंती :- लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना से जुडी एक किवदंती प्रचलित है जिसके अनुसार भगवान राम ने खर और दूषण के वध के पश्चात , भ्राता लक्ष्मण के कहने पर इस मंदिर की स्थापना की थी।

गर्भगृह में है लक्षलिंग :- लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है जिसके बारे में मान्यता है की इसकी स्थापना स्वयं लक्ष्मण ने की थी।  इस शिवलिंग में एक लाख छिद्र है इसलिए इसे लक्षलिंग कहा जाता है। इन लाख छिद्रों में से एक छिद्र ऐसा है जो की पातालगामी है क्योकि उसमे कितना भी जल डालो वो सब उसमे समा जाता है जबकि एक छिद्र अक्षय कुण्ड है क्योकि उसमे जल हमेशा भरा ही रहता है। लक्षलिंग पर चढ़ाया जल मंदिर के पीछे स्थित कुण्ड में चले जाने की भी मान्यता है, क्योंकि कुण्ड कभी सूखता नहीं। लक्षलिंग जमीन से करीब 30 फीट उपर है और इसे स्वयंभू लिंग भी माना जाता है।


मंदिर की बनावट :- यह मंदिर नगर के प्रमुख देव के रूप में पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख स्थित है। मंदिर में चारों ओर पत्थर की मजबूत दीवार है। इस दीवार के अंदर ११० फीट लंबा और ४८ फीट चौड़ा चबूतरा है जिसके ऊपर ४८ फुट ऊँचा और ३० फुट गोलाई लिए मंदिर स्थित है। मंदिर के अवलोकन से पता चलता है कि पहले इस चबूतरे में बृहदाकार मंदिर के निर्माण की योजना थी, क्योंकि इसके अधोभाग स्पष्टत: मंदिर की आकृति में निर्मित है। चबूतरे के ऊपरी भाग को परिक्रमा कहते हैं। सभा मंडप के सामने के भाग में सत्यनारायण मंडप, नन्दी मंडप और भोगशाला हैं। 




मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही सभा मंडप मिलता है। इसके दक्षिण तथा वाम भाग में एक-एक शिलालेख दीवार में लगा है। दक्षिण भाग के शिलालेख की भाषा अस्पष्ट है अत: इसे पढ़ा नहीं जा सकता। उसके अनुसार इस लेख में आठवी शताब्दी के इन्द्रबल तथा ईशानदेव नामक शासकों का उल्लेख हुआ है। मंदिर के वाम भाग का शिलालेख संस्कृत भाषा में है। इसमें ४४ श्लोक है। चन्द्रवंशी हैहयवंश में रत्नपुर के राजाओं का जन्म हुआ था। इनके द्वारा अनेक मंदिर, मठ और तालाब आदि निर्मित कराने का उल्लेख इस शिलालेख में है। तदनुसार रत्नदेव तृतीय की राल्हा और पद्मा नाम की दो रानियाँ थीं। राल्हा से सम्प्रद और जीजाक नामक पुत्र हुए। पद्मा से सिंहतुल्य पराक्रमी पुत्र खड्गदेव हुए जो रत्नपुर के राजा भी हुए जिसने लक्ष्मणेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इससे पता चलता है कि मंदिर आठवीं शताब्दी तक जीर्ण हो चुका था जिसके उद्धार की आवश्यकता पड़ी। इस आधार पर कुछ विद्वान इसको छठी शताब्दी का मानते हैं।
मूल मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पार्श्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तम्भ हैं। इनमें से एक स्तम्भ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य खुदे हैं। इसी प्रकार दूसरे स्तम्भ में राम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे राम-सुग्रीव मित्रता, बाली का वध, शिव तांडव और सामान्य जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और दंडधरी पुरुष खुदे हैं। प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना की मूर्ति स्थित है। मूर्तियों में मकर और कच्छप वाहन स्पष्ट दिखाई देते हैं। उनके पार्श्व में दो नारी प्रतिमाएँ हैं। इसके नीचे प्रत्येक पार्श्व में द्वारपाल जय और विजय की मूर्ति है। लक्ष्मणेश्वर महादेव के इस मंदिर में सावन मास में श्रावणी और महाशिवरात्रि में मेला लगता है।


छत्तीसगढ़ के पाँच ललित कला केन्द्रों में से एक और मोक्षदायी नगर माना जाने के कारण छत्तीसगढ़ की काशी कहा जाने वाला खरौद नगर में एक दुर्लभ शिवलिंग स्थापित है ! जिसे लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है ! लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से १२० कि॰मी॰ तथा संस्कारधानी शिवरीनारायण से ३ कि॰मी॰ की दूरी पर बसे खरौद नगर में स्थित है ! रामायणकालीन इस मंदिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है जिसमें एक लाख छिद्र हैं ! कहते हैं कि इनमें से एक छिद्र पाताल का रास्ता है !
लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहाँ रामायण कालीन शबरी उद्धार और लंका विजय के निमित्त भ्राता लक्ष्मण की विनती पर श्रीराम ने खर और दूषण की मुक्ति के पश्चात ‘लक्ष्मणेश्वर महादेव’ की स्थापना की थी ! रतनपुर के राजा खड्गदेव ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था ! विद्वानों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण काल छठी शताब्दी माना गया है
इस मंदिर के निर्माण के पीछे की कथा बड़ी ही रोचक है ! साथ ही इस मंदिर का निर्माण कुछ इस तरह किया गया है कि सुनने वाले और सुनाने वाले को इस पर यकीन करना मुश्किल होगा ! इस मंदिर में शिवलिंग है, जिसमें एक लाख छिद्र हैं, इस कारण इसे लक्षलिंग कहा जाता है, इसमें से एक छिद्र पातालगामी हैं, जिसमें कितना भी पानी डाला जाए, उतना ही समाहित हो जाता है, छिद्र के बारे में कहा जाता है कि इसका रास्ता पाताल की ओर जाता है !
इसके निर्माण की कथा यह है कि रावण का वध करने के बाद श्रीराम को ब्रह्म हत्या का पाप लगा, क्योंकि रावण एक ब्राह्मण था ! इस पाप से मुक्ति पाने के लिए श्रीराम और लक्ष्मण रामेश्वर लिंग की स्थापना करते हैं ! शिव के अभिषेक के लिए लक्ष्मण सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों से जल एकत्रित करते हैं .
जल एकत्रित करने के दौर्रण दौरान लक्ष्मण जी गुप्त तीर्थ शिवरीनारायण से जल लेकर अयोध्या के लिए निकलते समय रोगग्रस्त हो गए ! रोग से छुटकारा पाने के लिए लक्ष्मण शिव की आराधना की, इससे प्रसन्न होकर शिव दर्शन देते हैं और लक्षलिंग रूप में विराजमान होकर लक्ष्मण को पूजा करने के लिए कहते हैं ! लक्ष्मण शिवलिंग की पूजा करने के बाद रोग मुक्त हो जाते हैं और ब्रह्म हत्या के पाप से भी मुक्ति पाते हैं, इस कारण यह शिवलिंग लक्ष्मणेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ !
मंदिर के बाहर परिक्रमा में राजा खड्गदेव और उनकी रानी हाथ जोड़े स्थित हैं ! प्रति वर्ष यहाँ महाशिवरात्रि के मेले में शिव की बारात निकाली जाती है ! छत्तीसगढ़ में इस नगर की काशी के समान मान्यता है कहते हैं भगवान राम ने इस स्थान में खर और दूषण नाम के असुरों का वध किया था इसी कारण इस नगर का नाम खरौद पड़ा !

शिवरीनारायण मंदिर (Shivrinarayan Mandir)

शिवरीनारायण मंदिर (Shivrinarayan Mandir)

रामायण में एक प्रसंग आता है  जब देवी सीता को ढूंढते हुए भगवान राम और लक्ष्मण दंडकारण्य में भटकते हुए  माता शबरी के आश्रम में पहुंच जाते हैं। जहां शबरी उन्हें अपने जूठे बेर खिलाती है 
जिसे राम बड़े प्रेम से खा लेते हैं। माता शबरी का वह आश्रम छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण में शिवरीनारायण मंदिर परिसर में स्थित है। 
महानदी, जोंक और शिवनाथ नदी के तट पर स्थित यह मंदिर व आश्रम प्रकृति के खूबसूरत नजारों से घिरे हुए है। - 
                                                    माता शबरी आश्रम

शिवरी नारायण मंदिर के कारण ही यह स्थान छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ है | मान्यता है कि इसी स्थान पर प्राचीन समय में भगवान जगन्नाथ जी की प्रतिमा स्थापित रही थी, 
परंतु बाद में इस प्रतिमा को जगन्नाथ पुरी में ले जाया गया था । इसी आस्था के फलस्वरूप माना जाता है कि आज भी भगवान जगन्नाथ जी यहां पर आते हैं |


शिवरीनारायण छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले में आता है। यह बिलासपुर से 64 और रायपुर से 120 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान को पहले माता शबरी के नाम पर शबरीनारायण कहा जाता था 
जो बाद में शिवरीनारायण के रूप में प्रचलित हुआ।


शिवरीनारायण कहलाता है गुप्त धाम :-
देश के प्रचलित चार धाम उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिका धाम स्थित हैं। लेकिन मध्य में स्थित शिवरी नारयण को ”गुप्तधाम” का स्थान प्राप्त है। 
इस बात का वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है

यह कटोरीनुमा पत्‍ता कृष्‍ण वट का है। लोगों का मानना है कि शबरी ने इसी पत्‍ते में रख कर श्रीराम को बेर खिलाए थे। 
शबरी का असली नाम श्रमणा था, वह भील सामुदाय के शबर जाति से सम्बन्ध रखती थीं। उनके पिता भीलों के राजा थे। बताया जाता है कि उनका विवाह एक भील कुमार से तय हुआ था, विवाह से पहले सैकड़ों बकरे-भैंसे बलि के लिए लाये गए जिन्हें देख शबरी को बहुत बुरा लगा कि यह कैसा विवाह जिसके लिए इतने पशुओं की हत्या की जाएगी। शबरी विवाह के एक दिन पहले घर से भाग गई। घर से भाग वे दंडकारण्य पहुंच गई।
दंडकारण्य में ऋषि तपस्या किया करते थे, शबरी उनकी सेवा तो करना चाहती थी पर वह हीन जाति की थी और उनको पता था कि उनकी सेवा कोई भी ऋषि स्वीकार नहीं करेंगे। इसके लिए उन्होंने एक रास्ता निकाला, वे सुबह-सुबह ऋषियों के उठने से पहले उनके आश्रम से नदी तक का रास्ता साफ़ कर देती थीं, कांटे बीन कर रास्ते में रेत बिछा देती थी। यह सब वे ऐसे करती थीं कि किसी को इसका पता नहीं चलता था।
एक दिन ऋषि मतंग की नजऱ शबरी पर पड़ी, उनके सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में शरण दे दी, इस पर ऋषि का सामाजिक विरोध भी हुआ पर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में ही रखा। जब मतंग ऋषि की मृत्यु का समय आया तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे अपने आश्रम में ही भगवान राम की प्रतीक्षा करें, वे उनसे मिलने जरूर आएंगे।

मतंग ऋषि की मौत के बात शबरी का समय भगवान राम की प्रतीक्षा में बीतने लगा, वह अपना आश्रम एकदम साफ़ रखती थीं। रोज राम के लिए मीठे बेर तोड़कर लाती थी। बेर में कीड़े न हों और वह खट्टा न हो इसके लिए वह एक-एक बेर चखकर तोड़ती थी। ऐसा करते-करते कई साल बीत गए।
एक दिन शबरी को पता चला कि दो सुकुमार युवक उन्हें ढूंढ रहे हैं। वे समझ गईं कि उनके प्रभु राम आ गए हैं, तब तक वे बूढ़ी हो चुकी थीं, लाठी टेक के चलती थीं। लेकिन राम के आने की खबर सुनते ही उन्हें अपनी कोई सुध नहीं रही, वे भागती हुई उनके पास पहुंची और उन्हें घर लेकर आई और उनके पाँव धोकर बैठाया। अपने तोड़े हुए मीठे बेर राम को दिए राम ने बड़े प्रेम से वे बेर खाए और लक्ष्मण को भी खाने को कहा।
लक्ष्मण को जूठे बेर खाने में संकोच हो रहा था, राम का मन रखने के लिए उन्होंने बेर उठा तो लिए लेकिन खाए नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि राम-रावण युद्ध में जब शक्ति बाण का प्रयोग किया गया तो वे मूर्छित हो गए थे।

सीता बेंगरा गुफा,रामगढ (Sita Bengra Caves,Ramgarh)

सीता बेंगरा ,रामगढ  (Sita Bengra,Ramgarh)


छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में रामगढ़ की पहाड़ियों पर स्थित सीता बेंगरा गुफा देश की सबसे पुरानी नाट्यशाला है। इसका गौरव इसलिए भी अधिक है क्योंकि कालिदास की विख्यात रचना मेघदूतम ने यहीं आकार लिया था। इसलिए ही इस जगह हर साल आषाढ़ के महीने में बादलों की पूजा की जाती है। देश में संभवत: यह अकेला स्थान है, जहां हर साल बादलों की पूजा करने का रिवाज है। इस पूजा के दौरान देखने में आता है कि हर साल उस समय आसमान में काले-काले मेघ उमड़ आते हैं। मेघदूतम में उल्लेख है कि यहां अप्सराएं नृत्य किया करती थीं।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 280 किलोमीटर दूर है रामगढ़। अंबिकापुर-बिलासपुर मार्ग स्थित रामगढ़ के जंगल में तीन कमरों वाली देश की सबसे पुरानी नाट्यशाला है। सीता बेंगरा गुफा पत्थरों को गैलरीनुमा काट कर बनाई गई है। यह 44.5 फीट लम्बी एवं 15 फीट चौड़ी है। दीवारें सीधी तथा प्रवेशद्वार गोलाकार है। इस द्वार की ऊंचाई 6 फीट है, जो भीतर जाकर 4 फीट ही रह जाती हैं। नाट्यशाला को प्रतिध्वनि रहित करने के लिए दीवारों में छेद किया गया है। गुफा तक जाने के लिए पहाड़ियों को काटकर सीढ़ियां बनाई गई हैं।

रामायण_से_जुड़ा_है_इतिहास
किवदंती है कि यहां वनवास काल में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता के साथ पहुंचे थे। सरगुजा बोली में भेंगरा का अर्थ कमरा होता है। यानी यह सीता का कमरा था। प्रवेश द्वार के समीप खंभे गाड़ने के लिए छेद बनाए हैं तथा एक ओर भगवान राम के चरण चिह्न अंकित हैं। मान्यता है कि ये चरण चिह्न महाकवि कालिदास के समय भी थे। मेघदूतम में रामगिरि पर सिद्धांगनाओं (अप्सराओं) की उपस्थिति का भी उल्लेख मिलता है।


पुरातत्वेत्ताओं के अनुसार यहां मिले शिलालेखों से पता चलता है कि सीताबेंगरा नामक गुफा ईसा पूर्व दूसरी-तीसरी सदी की है। देश में इतनी पुरानी और दूसरी नाट्यशाला कहीं नहीं है। यहां उस समय क्षेत्रीय राजाओं द्वारा भजन-कीर्तन और नाटक करवाए जाते रहे होंगे। 1906 में पूना से प्रकाशित वी के परांजपे के शोधपरक व्यापक सर्वेक्षण के "ए फ्रेश लाइन ऑफ़ मेघदूत" में भी यह बताया गया है कि रामगढ़ (सरगुजा) ही राम की वनवास स्थली और मेघदूतम की प्रेरणास्रोत रामगिरी है।
लक्ष्मण_रेखा_भी
गुफा के बाहर दो फीट चौड़ा गड्ढा भी है जो सामने से पूरी गुफा को घेरता है। मान्यता है कि यह लक्ष्मण रेखा है, इसके बाहर एक पांव का निशान भी है। इस गुफा के बाहर एक सुरंग है। इसे हथफोड़ सुरंग के नाम से जाना जाता है। इसकी लंबाई करीब 500 मीटर है। यहां पहाड़ी में भगवान राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान की 12-13वीं सदी की प्रतिमाएं भी हैं।

यहां_से_निकलती_है_चन्दन_मिट्टी
रामगढ़ की पहाड़ी में चंदन गुफा भी है। यहां से लोग चंदन मिट्टी निकालते हैं और उसका उपयोग धार्मिक कार्यों में किया जाता है। इतिहासविद रामगढ़ की पहाड़ियों को रामायण में वर्णित चित्रकूट मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार महाकवि कालिदास ने जब राजा भोज से नाराज हो उज्जयिनी का परित्याग किया था, तब उन्होंने यहीं शरण ली थी और महाकाव्य मेघदूत की रचना इन्हीं पहाड़ियों पर बैठकर की थी।

रामगढ़_महोत्सव
रामगढ़ की पहाड़ियों को संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध महाकवि कालिदास की सृजन भूमि के रूप में पहचाना जाता है। इतिहासकार डा. रमेंद्रनाथ मिश्र के मुताबिक इन पहाड़ियों की गुफाओं में विश्व की प्राचीनतम नाट्यशाला होने के प्रमाण मिले हैं। यहां 2 जून से रामगढ़ महोत्सव का आयोजन हो रहा है। पहले दिन इसमें रामगढ़ की नाट्यशाला पर चर्चा भी होगी।


रामगढ में कुछ अन्य प्रमुख दर्शनीय स्थल भी हैं 
हाथीपोल , नाट्य शाला , शिलालेख  , #जोगीमारा  गुफा , तुर्रापानी  , पौड़ी दरवाजा , सिंह दरवाजा , महेशपुर


कैसे जाएं ? - सरगुजा के लिए रायपुर से ट्रेन एवं बस की सुविधा है। रायपुर से बस मार्ग द्वारा उदयपुर पहुंचा जा सकता है और वहीं से 4 किलोमीटर की दूरी पर रामगढ़ का किला एवं रामगिरि पर्वत है। रायपुर से सड़क मार्ग द्वारा इसकी दूरी लगभग 300 किलोमीटर है। नवम्बर से मार्च तक का मौसम इस स्थान के भ्रमण के लिए उपयुक्त है।

Thursday, December 24, 2015

Badalkhol wildlife sanctuary (Jashpur)


Badalkhol sanctuary is located in Jashpur District of Chhattisgarh,Badalkhol Sanctuary is about 160 km north of Raigarh. It lies on the banks of Eib River and Dorki River and spreads over an area of 105 sq km.The sanctuary's vegetation is dominated by Sal forests. It is home to panther, chital, wild bear, jungle cat, monkey, jackals, hyena, bear, wolf, fox, cobra, kraits, python, red spur fall, bhura teetar, kala teetar, tree pie, green pigeon and rollers.
January to June is the best time to visit.





Wednesday, December 23, 2015

Purkhauti Muktangan Museum,Naya Raipur (पुरखौती मुक्तांगन,नया रायपुर )

Purkhauti Muktangan Museum,Naya Raipur (पुरखौती मुक्तांगन,नया रायपुर  )





About Purkhauti Muktangan Museum

Purkhauti Muktangan is a open air art Museum cum Park Developed by Tourism Ministry of Chhattisgarh. It is located in Naya Raipur of Chhattisgarh. Here you can find all the Tribal Culture , Activity and all the popular Tourist places in Chhattisgarh.
There are all the models of Tourist Places like ChitraKut of South Bastar, Bhoram Dev (Kawardha), dentawara, Jagadapur Forest Places and Folk Dance Model.
This Meuseum is being developed by Government of Chhattisgarh, Culture Department under Ministry of Tourism. The habitate, artifacts, folk dances, food habits of the tribals are being desplayed.

How to Reach Purkhauti Muktangan Museum

By Air : The Nearest Airport is Swami Vivekananda Airport, Raipur. From Raipur Airport to Purkhauti Muktangan is aprx 10 Kms by Car .
By Road: From Raipur, drive 19km south east via Malviya Road towards Ring Road and get onto State Highway 2 to reach Purkhauti Muktangan near Radiant School at Uparwara, New Capital Area.
By Train: Located on the Mumbai-Howrah route of the Indian Railways, Raipur is well connected to major cities by daily trains. Purkhauti-Muktangan is apprx 21 Kms. from Raipur Station.

Tuesday, December 8, 2015

Bilaspur Tourist Places (बिलासपुर पर्यटक स्थल)

1. Ratanpur, Bilaspur (रतनपुर, बिलासपुर)

Ratanpur is a town located about 25 km from Bilaspur City on NH-200 towards Ambikapur. This city was founded by King Ratnadev and was previously named Ratnapur. It was the capital of the Kalchuri Dynasty in 1000 AD and remained an important place for several centuries. The restoration work of the Ratanpur Fort has been completed by the Archaeological Survey of India, whose findings have been put on the National Archaeological Map.

King Ratnadev built the Mahamaya Temple here, which has a dual idol of Goddesses Saraswati and Laxmi. This temple is recognised as a Sidh Peeth and is the most popular religious place in Chattisgarh. Tourists from different parts of the country visit this temple year-round to offer prayers and seek blessings. Several new temples, dedicated to different Gods and Goddesses have been built in the campus of the Mahamaya Temple.

Navratri is celebrated with great zeal at the temple, during which many tourists visit this temple to offer prayers and light the jyoti. Fairs are organised here during this period, which are quite popular with the tourists.



3. Achanakmar Wildlife Sanctury, Bilaspur (अचानकमार वन्यजीव अभयारण्य, बिलासपुर)
Achanakmar Wildlife Sanctuary was established in 1975 under the Wildlife Protection Act. This dense forest, which spreads over an area of 555 sq. km, is about 40 km from Bilaspur City. This sanctuary houses wild animals including tiger, leopard, chital, sambar, bear and various other animals.

Several watch towers are erected at different places inside this sanctuary, from where tourists can clearly see the wild animals roaming in their natural habitat. From Bilaspur, tour for this jungle is organised by the forest department. Tourists can also use their own vehicles to tour the jungle.

Guides are provided by the forest department to ensure that tourists do not get lost inside the sanctuary. These guides are available at the check post in Achanakmar and Lamni. Keeping in view the needs of tourists, the forest department have setup several rest houses inside the sanctuary. An herbal cultivation centre is also setup by the department near Lamni.

4. Talagaon, Bilaspur (बिलासपुर)

Talagaon, a small village on the banks of Maniyari River, is located at a distance of 30 km from Bilaspur City. This village gained popularity after the excavation of the Deorani-Jethani Temple. This mandir is more than 1500 years old and houses a statue of Rudrashiv, which is still in excellent condition. The statue has a unique assembly of various animals, snakes and insects. Many human faces are designed on the different parts of the body.

The temple walls are decorated with carvings and statues, which depict the stories of Lord Shiva. At the entrance of this temple, tourists can find artistic statues of several deities. Recently, a beautiful park has been developed around the temple, which adds to the beauty of the attraction. New carvings have been made on the walls of the temple, along the river bank.

5. Malhar, Bilaspur (बिलासपुर)
It is famous for it's archeological importance. It is situated at 40 km. by road from
Bilaspur. In Malhar, so many ancient temples have been found by extraction such as Pataleshwar temple, Devri temple & Dindeshwari temple. Four handed idol of Lord Vishnu is also very famous. Malhar has a museum also.

(Saravpur) Once open a time the Saravpur was the Capital of ancient Chhattishgarh. It is approximately 14 Km. away from Masturi block on the route of Bilaspur- Raigarh. At this place remains have been found of the period dated approx. 1000 BC. The temples of 10th and 11th century can also be seen here. Among these Pataleshwar Kedar temple is one of them where Gaumukhi Shiv ling is the main site of attraction. The Didneswari temple is also present here. Artistic idols can be seen in Deor temple. At this place, there is museum having good collection of old sculpture being managed by Central Govt.

Mode of Transportation : By road from Bilaspur.

छत्तीसगढ़ के त्यौहार (Chhattisgarh festivals)

Hareli Festival (हरेली त्यौहार )

The Hareli festival is one of the popular festivals Chhattisgarh. Farmers celebrate this festival in the month of Shravan, by worshipping farm equipment and cows. They place branches and leaves of the Bhelwa tree in the fields and pray for a good crop, and also hang small Neem branches at the main entrance of their homes to prevent seasonal diseases. For the next 15 days, Baigas (the traditional medical practitioners) teachi their disciples - this goes on till panchami (the day following Ganesh Chaturthi) or the months of July and August in the Gregorian calendar. On panchami, they examine their disciples, and if satisfied with their performance, grant them the license to practice medicine. Children play gedi (walking on bamboo) and take part in a gedi race.

Hareli festival is of special importance among Gond tribes. During this time the farmers of Chhattisgarh worship their equipments used for farming and cows. The farmers pray for a good harvest and the basic theme of this festival is manly nature centric. The manifestations in rituals are simple, though the prayers are ardent.

Madai Festival (मड़ई त्यौहार )

This tribal festival is celebrated by the tribes of Kanker and Bastar regions, to worship the local God(dess). It travels through the Kanker, Bastar and Dantewada regions from December to March each year.
In December, celebrations start in Bastar to honour the goddess Kesharpal Kesharpalin Devi. In January, the people of Kanker, Charama and Kurna celebrate the festival. In February the festival goes back to Bastar and Cheri-Chher-Kin is honoured this time. Towards the end of February, the festival goes to Antagarh, Narayanpur and Bhanupratappur. In March it goes to Kondagaon, Keshkal and Bhopalpattanam.

It is held in a big ground, so that thousands of people can attend the ceremony, which starts with a procession of the local God(dess), followed by worhip of the same, culminating in cultural programs, dancing and lots of good food.

Goncha Festival(गोंचा त्यौहार )

he newly found state of Chhattisgarh has a fairly large tribal population. These tribes have a distinctive cultural entity of their own. Their unique culture is best manifested in the festivals that they celebrate with a great deal of pomp and grandeur.
The Goncha Festival in Chhattisgarh is one such tribal festival that is marked by a lot of joy and merry making. It also showcases the inimitable tribal culture. If you can visit the district of Bastar in Chhattisgarh at the time of the Goncha Festival you will get the unique privilege to be a part of the festival that is truly one of its kind.
Description of the Goncha Festival in Chhattisgarh
The Goncha Festival is also popularly known as the Chariot Festival probably because it is celebrated at a time when the Hindus celebrate Rath Yatra. The vigorous and enthusiastic enjoyment that marks the Goncha Festival in Chhattisgarh is remarkable. The zest and hearty spirit of the tribals from different parts of Bastar who participate in this festival is incredible.
There are several customs that are associated with this Chhattisgarh Festival. Goncha is actually a kind of fruit. The tribal people make a pistol using tukki or bamboo. As is evident, it is just a mock weapon that is constructed by them to follow the tradition of the tribe. The fruit Goncha is likewise used as a bullet.
They use the pistol and the bullet, actually a bamboo stick cut in the shape of a pistol and a fruit to strike each other. The intention is not to hurt each other but to just be a part of a mock encounter. It is a source of unlimited joy for them. They find it very thrilling and exciting. The fervor and gusto of the people of Chhattisgarh at the time of celebrating this festival is admirable. The celebration of Festivals like these brings to the forefront the ethnicity of this part of the country.
Time for celebrating the Goncha Festival in Chhattisgarh
The Goncha Festival is celebrated according to the Hindu calendar at the time of Rath Yatra. It generally falls in the month of July according to the Gregorian calendar. If you visit the state of Chhattisgarh at the time of the Goncha Festival, you can be a part of the festivities.

Teeja Festival (तीजा त्यौहार )


Teej - the festival of swings is celebrated with gusto and fervor in various parts of India and Nepal. The festival of Teej commemorates the reunion of Lord Shiva and Goddess Parvati. Married women and young girls celebrate the festival with earnest devotion. Teej falls in the month of Sawan and brings great relax from the scorching summers. Many religious activities takes place at the time of Teej. Such rituals and customs of Teej forces people to become part of grand Teej celebrations.

Teej has many significant roles to play in one's life. Women observing Nirajara Vrat on Teej are said to be blessed with long and healthy life of their husband by Teej Mata Parvati. Various other customs and rituals of Teej make the festival more important. Teej gives a chance to women to express their love and devotion for their husband who in return present beautiful gifts to their wife as a token of love.