Friday, February 26, 2016

गोमरदा पशु अभयारण्य (Gomarda Wildlife Sanctuary)

छत्तीसगढ़ एक प्राचीन इतिहास है कि एक समय में जब इसे दक्षिण कोशल के नाम से बुलाया गया था। यह एक आदिवासी बहुल क्षेत्र उड़ीसा और झारखंड से पूर्वी हिस्से और और मध्य प्रदेश से उत्तर के राज्य के बीच स्थित है। यहा दुर्लभ प्रजातियों की संख्या के प्राकृतिक वास है और यह विदेशी स्थानों में से एक है। छत्तीसगढ़ में वन्यजीव अभयारण्यों, जो बीच में उल्लेख गोमरदा वन्यजीव अभयारण्य, छत्तीसगढ़ का एक बहूत ही प्रसिद्ध स्थल है।
भारत के छत्तीसगढ़ राज्य मे गोमरदा में वन्यजीव अभयारण्य रायगढ़ जिले में स्थित है। यह सारंगढ़ के पास स्थित है। क्षेत्र में पहाड़ी क्षेत्रों की एक बहुत विशाल आकर्षण का केंद्र है। 275 वर्ग किमी में फैले यह एक साहसिक चाहने वालों के लिए आदर्श गंतव्य के है।
छत्तीसगढ़ के गोमरदा वन्यजीव अभयारण्य में जंगली जानवरों की विभिन्न किस्मों है। और यहा जानवरो की आम प्रजाति भी देखने को मिल जाएगी। उनमें से कुछ हिरण और चिंकारा हैं। और यह पर्यटकों जगह का भी अच्छा केंद्र है। यहा जंगली भैंसे जो झुंड में चलते हैं और इनका एक सुंदर दृश्य भी आप को यहा देखने को मिले गा। अगर आप भाग्यशाली हैं तो आप भी यहा पहाड़ी मैना का एक सुंदर दृश्य देख सकते है। टाईगर्स तेंदुए भी यहाँ आप को देखने को मिलेंगे लेकिन अब वे शायद ही कभी कम आप को दिखाई दे।

गोमरदा वन्यजीव अभयारण्य नीलगिरि की तरह अन्य प्रजातियों, सांभर, गौर्स, बार्किंग डीयर, नवसिंघा, आलसी भालू, जंगली सूअर, ढोल या जंगली कुत्ते और लोमड़ी का निवास है।

यहा पक्षियों की विभिन्न प्रजातियां भी देखने को भी मिलेगी जैसे कुछ किस्मों के मयूर, जंगल उल्लू , ग्रीन कबूतर, कोयल, तोते और स्टॉर्क ये सब देखने को मिलेंगे।

गोमरदा वन्यजीव अभयारण्य, छत्तीसगढ़ के सभी कोनों से पहुँचा जा सकता है। वहाँ अच्छे होटल भी है जो कला से भरे और अच्छी सुविधा के साथ है।

How To Reach

कैसे पहुचे गोमरदा पशु अभयारण्य जो की छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले मे स्थित है वह जाने के लिए सबसे अच्छा साधन है ट्रेन, बस, और फिर खुद की ट्रांसपोर्ट व्यवस्था —
अगर आप बस से यात्रा करना चाहते है तो यह जगह रायगढ़ से ४० कि॰ मी॰
की दूरी पर स्थित है।
और अगर आप ट्रेन से यात्रा करना चाहते है तो निकटतम रेल्वे स्टेशन है रायगढ़।
और निकटतम हवाई अड्डा है रायपुर।

Monday, February 22, 2016

राजिम कुम्भ

राजिम कुम्भ को प्रति वर्ष होने वाले कुम्भ के नाम से भी जाना जाता है, कुछ वर्ष पहले यह एक मेले का स्वरुप था यहाँ प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक पंद्रह दिनों का मेला लगता है राजिम तीन नदियों का संगम है इसलिए इसे त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है, यह मुख्य रूप से तीन नदिया बहती है, जिनके नाम क्रमश महानदी, पैरी नदी तथा सोढुर नदी है, राजिम तीन नदियों का संगम स्थल है, संगम स्थल पर कुलेश्वर महादेव जी विराजमान है, राजिम कुम्भ यहाँ होने वाले राजिम मेले का वर्तमान स्वरुप है, २००१ से राजिम मेले को राजीव लोचन महोत्सव के रूप में मनाया जाता था, २००५ से इसे कुम्भ के रूप में मनाया जाता है, प्रतिवर्ष राजिम कुम्भ का आयोजन छत्तीसगढ़ शासन संस्कृति विभाग, एवम स्थानीय आयोजन समिति के सहयोग से होता है,कुम्भ की शुरुआत कल्पवाश से होती है पखवाड़े भर पहले से श्रद्धालु पंचकोशी यात्रा प्रारंभ कर देते है पंचकोशी यात्रा में श्रद्धालु पटेश्वर, फिंगेश्वर, ब्रम्हनेश्वर, कोपेश्वर तथा चम्पेश्वर नाथ के पैदल भ्रमण कर दर्शन करते है तथा धुनी रमाते है, १०१ कि॰मी॰ की यात्रा का समापन होता है और माघ पूर्णिमा से कुम्भ का आगाज होता है, राजिम कुम्भ में विभिन्न जगहों से हजारो साधू संतो का आगमन होता है, प्रतिवर्ष हजारो के संख्या में नागा साधू, संत आदि आते है, तथा शाही स्नान तथा संत समागम में भाग लेते है, प्रतिवर्ष होने वाले इस महाकुम्भ में विभिन्न राज्यों से लाखो की संख्या में लोग आते है,और भगवान श्री राजीव लोचन, तथा श्री कुलेश्वर नाथ महादेव जी के दर्शन करते है, और अपना जीवन धन्य मानते है, लोगो में मान्यता है की भनवान जगन्नाथपुरी जी की यात्रा तब तक पूरी नही मानी जाती जब तक भगवान श्री राजीव लोचन तथा श्री कुलेश्वर नाथ के दर्शन नहीं कर लिए जाते, राजिम कुम्भ का अंचल में अपना एक विशेष महत्व है।


राजिम अपने आप में एक विशेष महत्व रखने वाला एक छोटा सा शहर है राजिम गरियाबंद जिले का एक तहसील है प्राचीन समय से राजिम अपने पुरातत्वो और प्राचीन सभ्यताओ के लिए प्रसिद्द है राजिम मुख्य रूप से भगवान श्री राजीव लोचन जी के मंदिर के कारण प्रसिद्द है। राजिम का यह मंदिर आठवीं शताब्दी का है। यहाँ कुलेश्वर महादेव जी का भी मंदिर है। जो संगम स्थल पर विराजमान है। राजिम कुम्भ का मेला प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से शिवरात्रि तक चलता है। इस दौरान प्रशासन द्वारा विविध सांस्कृतिक व् धार्मिक आयोजन आदि होते रहते है।

फरवरी- मार्च माह में माघ पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक पन्द्रह दिनों के लिए लगने वाला भारत का पाँचवाँ कुम्भ मेला छत्तीसगढ़ की धार्मिक राजधानी प्रयागधरा राजिम में हर वर्ष लगने वाला कुम्भ है। इसमें उज्जैन, हरिद्वार, अयोध्या, प्रयाग, ऋषिकेश, द्वारिका, कपूरथला, दिल्ली, मुंबई जैसे धार्मिक स्थलों के साथ छत्तीसगढ़ के प्रमुख धार्मिक सम्प्रदायों के अखाड़ों के महंत, साधु-संत, महात्मा और धर्माचार्यों का संगम होता है।

राजिम अपने शानदार मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध है। महानदी पूरे छत्तीसगढ़ की प्रमुख जीवनदायिनी नदी है। इसी नदी के तट पर बसी है, 'राजिम नगरी'। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 45 किलोमीटर दूर 'सोंढूर', 'पैरी' और 'महानदी' के त्रिवेणी संगम-तट पर बसे छत्तीसगढ़ की इस नगरी को श्रृद्धालु 'श्राद्ध', 'तर्पण', 'पर्व स्नान' और 'दान' आदि धार्मिक कार्यों के लिए उतना ही पवित्र मानते हैं, जितना कि अयोध्या और बनारस को। मंदिरों की महानगरी राजिम की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक संपूर्ण नहीं होती, जब तक यात्री राजिम की यात्रा नहीं कर लेता। तीनों नदियों के संगम पर हर वर्ष न जाने कब से आस-पास के लोग 'राजिम कुंभ' मनाते आ रहे हैं।

मेले की परम्परा
पूर्णिमा को छत्तीसगढ़ी में 'पुन्नी' कहते हैं। कुंभ माघी पुन्नी मेला के रूप में 'राजिम कुंभ' मनाया जाता रहा है। वर्तमान समय में राजिम कुंभ मेले का महत्त्व देश भर में होने लगा है। राजिम कुंभ साधु-संतों के पहुँचने व प्रवचन के कारण धीरे-धीरे विस्तार लेता गया और यह अब प्राचीन काल के चार कुंभ हरिद्वार, नासिक, इलाहाबाद व उज्जैन के बाद पाँचवाँ कुंभ बन गया है। राजिम का यह कुंभ हर वर्ष माघ पूर्णिमा से प्रारंभ होता है और महाशिवरात्रि तक पूरे एक पखवाड़े तक लगातार चलता रहता है।

राजिम कुंभ महानदी, सोंढूर और पैरी नदियों के साझा तट की रेत के विशाल पाट में नए आस्वाद की संगत में आने, रहने और बसने का निमंत्रण देता है। पुरातन राजिम मेला को नए रूप में साल दर साल गरिमा और भव्यता प्रदान करने के संकल्प के रूप में, छत्तीसगढ़ के इस सबसे बड़े धर्म संगम में प्रतिवर्ष कुंभ आयोजन का अधिनियम विधानसभा में पारित हो चुका हैं। आस्थाओं की रोशनी एक साथ लाखों हृदयों में उतरती है। राजिम कुंभ के त्रिवेणी संगम पर इतिहास की चेतना से परे के ये अनुभव जीवित होते हैं। हमारा भारतीय मन इस त्रिवेणी पर अपने भीतर पवित्रता का वह स्पर्श पाता है, जो जीवन की सार्थकता को रेखांकित करता है। अनादि काल से चली आ रहीं परम्पराएँ और आस्था के इस पर्व को 'राजिम कुंभ' कहा जाता है।

प्राचीनता

छत्तीसगढ़ राज्य के प्रसिद्ध तीर्थ राजिम के परम्परागत वार्षिक मेले का आयोजन माघ पूर्णिमा को होता है। पूर्णिमा को छत्तीसगढ़ी में 'पुन्नी' कहते हैं, इसीलिए पुन्नी मेलों का सिलसिला यहाँ लगातार चलता रहता है, जो भिन्न-भिन्न स्थानों में नदियों के किनारे सम्पन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण युगों से इन मेलों में अपने साधनों से आते-जाते रहे हैं और सगे-संबंधियों से मिलते हैं। छत्तीसगढ़ में धान की कटाई के बाद लगातार मेले-मड़ई का आयोजन शुरू हो जाता है। मेलों में ही अपने बच्चों के लिए वर-वधू तलाशने की परंपरा भी रही है। छत्तीसगढ़ राज्य बना तो कुछ वर्षों बाद 'राजिम मेले में कुंभ' आयोजनों को नया आयाम मिला। यह एक दृष्टि से बड़ा काम भी है। देश के दूसरे प्रांतों में कुंभ स्नान के लिए लोग जाते हैं। छत्तीसगढ़ में भी कुंभ के लिए पवित्र नगरी राजिम को धीरे-धीरे चिह्नित किया गया। वर्तमान समय में राजिम कुंभ देश भर में विख्यात हो गया है। राजिम के प्रसिद्ध मन्दिर 'राजीवलोचन' में ब्राह्मण ही नहीं, बल्कि क्षत्रिय भी पुजारी हैं। यह एक अनुकरणीय परंपरा है। ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को यह मान दिया है। श्रीराम अर्थात 'राजीवलोचन जी' स्वयं क्षत्रिय कुल में जन्मे थे। छत्तीसगढ़ में ही केवट समाज के लोग माता पार्वती अर्थात 'डिड़िनदाई' के पारंपरिक पुजारी हैं।

संत समागम

राजीवलोचन मन्दिर, छत्तीसगढ़
ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ स्नान करने मात्र से मनुष्य के समस्त कष्ट नष्ट हो जाते हैं और मृत्यु के उपरांत वह विष्णुलोक को प्राप्त करता है। यह भी माना जाता है कि भगवान शिव और विष्णु यहाँ साक्षात रूप में विराजमान हैं, जिन्हें 'राजीवलोचन' और 'कुलेश्वर महादेव' के रूप में जाना जाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि वैष्णव सम्प्रदाय की शुरुआत करने वाले महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली 'चम्पारण्य' भी यहीं है। वल्लाभाचार्य ने तीन बार पूरे देश का भ्रमण किया। वे 'अष्टछाप' के महाकवियों के गुरु थे। सूरदास जैसे महाकवि को उन्होंने ही दिशा देकर कृष्ण की भक्ति काव्य का सिरमौर बनने हेतु प्रेरित किया। राजिम मेले के अवसर पर क़रीब ही बसे चम्पारण्य में भी महोत्सव का आयोजन होता है। राजिम कुंभ में हज़ारों साधु-संत उमड़ते हैं। संत-समागम में पूरे देश से साधु-संत यहाँ आते हैं। अतिथि-संतों, नागा साधुओं और साध्वियों की उपस्थिति के गौरवशाली दृश्य इस बात का एहसास कराते हैं कि इतने असंख्य संतों के बीच में रहकर जीवन के विशाल प्रवाह में निस्वार्थ होकर, निजता खोकर ही एक हुआ जा सकता है।


यज्ञ और संतों की वाणी

महानदी के तट पर विशाल पंडालों में सारे संत और ज्ञानी उपस्थित होते हैं, जो जीवन के अर्थ अलग तरह से तलाशने में लीन रहते हैं। निराकार से एकाकार होने के अद्भुत अनुभवों के बीच यज्ञ की धूम्र शिखाओं मे सामान्य-जन एक नई ऊर्जा पाते हैं। श्रद्धा के अनुष्ठानों का पवित्र जगत जीवित हो उठता है, आस्था और समर्पण की उन स्वर लहरियों में जहाँ अपने आराध्य को याद करने में सब कुछ भुला दिया जाता है। राजिम कुंभ, वह अवसर लेकर आता है, जब लोग संतो, साधुओं, मनीषियों की संगत में बैठते हैं और ज्ञान व भक्ति के सागर में डूब जाते हैं। नागा संतों की उपस्थिति राजिम कुंभ को एक विशेष गरिमा देती है। यह भक्ति की लहरों के बीच उठता एक और महत्त्वपूर्ण अनुभव है। सभी संत जीवन की सार्थकता की राह दिखाने के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ श्रद्धा के सैलाब पर संतों की वाणी का अमृत बरसता है। मन के भीतर झरते इस अमृत को महसूस करने का अद्भुत संयोग लिए राजिम कुंभ अपनी पूरी पावनता में जाग उठता है। श्रद्धालुओं के मन से निकली आरती की मंगल ध्वनि, इस पावन राजिम कुंभ में समायी होती है।

त्रिवेणी होने के कारण राजिम हमेशा से अवस्थित एक तीर्थ रहा है। यह एक ऐसी जगह है, जहाँ श्रद्धा की रोशनी में अपने भीतर झाँकने का अवकाश मिलता है। यह एक अचेतन सामूहिक स्मृति है, जो बार-बार खींच लाती है। शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, अखाड़ा प्रमुख तथा संतों की अमृत वाणी को लोगों ने जब ग्रहण किया, तो दुनिया के नये अर्थ सामने आए। उनका यहाँ एकत्र होना बताता है कि राजिम में त्रिवेणी पर कुंभ है और राजिम कुंभ के पावन पर्व की अनुभुति को गहराई प्रदान करते हैं। राजिम कुंभ एक ऐसी अनुभुति है, जो भारतीय जीवन के गहरे सरोकारों को दिखाती है और जीवन में पवित्रता की संभावना को रेखांकित करती है। जीवन केवल यही तो नहीं होता, जो दैनिक क्रियाओं में बीतता रहता है। जीवन के कुछ वृहत्तर आयाम भी होते हैं। इन आयामों से साक्षात्कार करने का अवसर होता है- 'कुंभ'। संतों, साधुओं के अखाड़ों की पवित्र उपस्थिति से जन समूह आत्मा पर एक शीतल स्पर्श महसूस करते हैं।

पवित्र स्नान
छत्तीसगढ़ का मानस अपनी तरह से ये कुंभ सदियों से जीता रहा है। राजिम कुंभ में असंख्य संतों और साधुओं का एकत्र होना, स्वयं उनका आपस में गूढ़ सूत्रों पर विचार-विमर्श और सामान्य लोगों से उनका साक्षात्कार ही तो इस अवसर को कुंभ बनाता है। साधु-सन्न्यासियों, संतों की निरंतर उपस्थिति से अपने आप ही पवित्रता का एक आलोक उभरता है। कुंभ के आयोजन का एक पवित्र पल जीवित होता है, पवित्र स्नान के रूप में। त्रिवेणी संगम पर श्रद्धालुओं का एक सैलाब उमड़ पड़ता है। यहाँ सब अपनी-अपनी श्रद्धा के जलते दीपकों में कुंभ की पावनता का स्पर्श करते हैं। सारे श्रद्धालु इसी त्रिवेणी में डुबकी लगाते हुए अपने अपको उस पवित्र अनुभूति में डूबा पाते हैं।

भारतीयता की पहचान

'राजिम कुंभ' सदा से ही भारतीय मानस के गहरे अर्थों को रेखांकित करता रहा है। वह भारतीय जीवन के उल्लास पक्ष को भी दिखाता रहा है। हमारा सामाजिक जीवन अपनी सामूहिकता में अभिव्यक्त होता है और यही वजह है कि एक उत्सव धर्मिकता हर समय उनके साथ होती है। पवित्रता के एक अद्भुत वातावरण में राजिम कुंभ लोगों के जीवन में उल्लास के उस स्रोत की तरह आता है, जहाँ से वे अपने विश्वासों को पुनर्जीवित कर लेते हैं। राजिम कुंभ में लोग अपने-अपने विश्वासों को लिए बरबस ही खिंचे चले आते हैं। उल्लास का अतुलनीय सुख यहाँ उमड़ता रहता है। लोगों का हुजुम होता है और यह भरोसा कि इन क्षणों की पवित्रता जीवन को सार्थक बनाएगी। राजिम कुंभ लोगों के मन की सहज श्रद्धा, उनके जीवन की सहज आस्था, सामान्य उल्लास लगने वाले जीवन को अद्भुत उल्लास और पूर्णता से भर देता है।

भगवत कृपा की प्राप्ति

राजिम कुंभ में आये हुए श्रद्धालु निरंतर यह अनुभूति करते हैं कि वे एक ऐसे पवित्र आकाश के नीचे है, जहाँ भगवत कृपा की बरसात होती रहती है। कुंभ में लोग अपने सामाजिक जीवन को एक साथ एक मेले के रूप में मानते हैं। दूरदराज से आये सभी लोग एक ओर जहाँ श्रद्धा के भाव से भरे होते हैं तो दूसरी तरफ़ मेले के उल्लास के चटख रंग भी यहाँ मौजूद हैं। राजिम कुंभ अपने होने में भारतीय मानस और भारतीय जीवन के रंग-बिरंगे मेले के रूप में मन मस्तिष्क पर छा जाता है।

Monday, February 15, 2016

किसने बनाई इतने दुर्गम, इलाके में 3000 फीट की ऊंचाई पर ये गणेश की प्रतिमा

कुछ समय पहले पुरातत्व विभाग छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा जिला से लगभग 30 km दुरी पर ढ़ोलकल नामक जगह पर भगवांन गणेश की मूर्ति की खोज की । ढोलकल की पहाड़ियों पर लगभग 3000 फ़ीट की उचाई पर सैकड़ो साल पुरानी यह गणेश की मूर्ति आज भी आश्चर्य का विषय बना  है । इतनी उचाई पर इतने  साल पहले यह मूर्ति स्थापित करना जोखिम से कम नहीं था पुरातत्वविदो का अनुमान यह है 10 वी शताब्दी में दंतेवाड़ा छेत्र  रक्षक के रूप नागवंशियों ने गणेश जी मूर्ति यहाँ स्थापित की ।

भव्य है यहाँ की गणेश की प्रतिमा 

पहाड़ी ऊपर स्थित गणेश की मूर्ति लगभग  6 फ़ीट ऊँची और 21 फ़ीट चौड़ी ग्रेनाइट पत्थर से बनी हुई है । यह प्रतिमा वास्तुकला की दृष्टि से बहुत ही कलात्मक है गणपति की इस प्रतिमा में ऊपरी दाय हाथ में एक फरसा है और ऊपरी बाये हाथ में एक टुटा हुआ दांत है नीचे  दाये हाथ में अभय मुद्रा में अक्षमाला  धारण किये हुए और निचे बाये हाथ में मोदक धारण  किये हुए है ।  पुरातत्वविदो के मुताबिक यह  इस प्रकार  प्रतिमा बस्तर में  कही नहीं मिलती है देखने को ।

श्री गणेश और परशुराम का युद्ध 

दंतेश के छेत्र को दंतेवाड़ा कहा  जाता है इस छेत्र में एक  कैलाश गुफा  है । इस छेत्र से जुडी एक मान्यता है की ये वही कैलाश छेत्र है जहा भगवान गणेश और परशुराम के बीच युद्ध हुआ था ।
यहाँ पर दंतेवाड़ा से ढोलकल पहुचने मार्ग में  ग्राम परसपाल मिलता है । जो परशुराम के नाम से जाना जाता है । इसके आगे ग्राम कोतवाल  आता है जिसका अर्थ होता है रक्षक ।

दंतेवाड़ा के रक्षक है श्री गणेश

मान्यताओ के अनुसार इतनी उची पहाड़ी पर भगवान गणेश की स्थापना नागवंशियों ने की थी ।
गणेश जी की उदर पर एक नाग का चिन्ह मिलता है कहा जाता है की मूर्ति निर्माण करवाते समय नागवंशियो ने यह चिन्ह भगवान गणेश पर अंकित किया होगा । कला की दृष्टि से यह मूर्ति 10 - 11 वी शताब्दी की (नागवंशी ) प्रतिमा कही जाती है।  

Sunday, February 14, 2016

यहां होती है शादी के पहले ही युवक-युवतियों को रात साथ बिताने की छूट

छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के माड़िया जाति में परंपरा घोटुल को मनाया जाता है, घोटुल में आने वाले लड़के-लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने और उसके साथ रात बिताने की छूट होती है। घोटुल को सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है। क्या होता है घोटुल में …

-घोटुल एक प्रकार का बैचलर्स डोरमिटरी होता है। जहां सभी आदिवासी लड़के-लड़कियां रात में बसेरा करते हैं।
-गांव के सभी कुंवारे लड़के-लड़कियां शाम होने पर गांव के घोटुल घर में रहने जाते हैं ।

-घोटुल देश के कई जनजातीय समुदायों में पॉपुलर है। इसमें पूरे गांव के बच्चे या जवान एक साथ रहते हैं।
-यह छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले और साउथ के कुछ इलाकों में खासतौर पर मनाया जाता है।

-अलग-अलग इलाकों की घोटुल परम्पराओं में अंतर होता है। कुछ में जवान लड़के-लड़कियां घोटुल में ही सोते हैं तो कुछ में वे दिन भर वहां रहकर रात को अपने-अपने घरों में सोने जाते हैं।
-घोटुल में उस जाति से रिलेटेड आस्थाएं, नाच-संगीत, कला और कहानियां भी बताई जाती हैं।
-कुछ में नौजवान लड़के-लड़कियां आपस में मिलकर जीवन-साथी चुनते हैं, और उन्हें शादी के पहले ही साथ रात बिताने की छूट होती है। हालांकि यह परंपरा अब धीरे-धीरे कम हो रही है।

क्या है चेलिक और मोटियारी
घोटुल गांव के किनारे बनी एक मिट्टी की झोपड़ी होती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मण्डप होता है। शाम को लड़के-लड़कियां यहां धीरे-धीरे एकट्ठे होने लगते हैं और वे ग्रुप में गाते हुए ही घोटुल तक पहुंचते हैं।

लड़कों का ग्रुप अलग बनता है एवं लड़कियों का अलग।
घोटुल में कुछ अधेड़ लोग भी आते हैं लेकिन वे दूर बैठकर ही नाच-गाना देखते हैं। घोटुल के लड़कों को चेलिक और लड़कियों को मोटियारी कहा जाता है।

पहले से कम हुआ घोटुल का चलन
बस्तर में बाहरी दुनिया के कदम पड़ने से घोटुल का असली चेहरा बिगड़ा है। यह खास सोशल एक्टीविटी आखिरी सांसे गिन रही है। बस्तर के अंदरूनी इलाकों में घोटुल आज भी अपने बदले हुए रूप में देखा जा सकता है।

घोटुल में लड़के-लड़कियां के एक दूसरे के साथ समय बिताने से उन्हें एक दूसरे को समझने का मौका मिलता है। वे यहीं शादी के रिश्ते की भी शुरुआत करते हैं। बाहरी लोगों के यहां आने और फोटो खींचने, वीडियो फिल्म बनाना ही इस परम्परा के बन्द होने का कारण बना है।

बना नक्सलियों की आंखों की किरकिरी
अबूझमाड़ की इस आदिवासी संस्कृति पर देश-विदेश से लोग रिसर्च करने आते हैं। पर यह परंपरा माओवादियों को नापसंद है। इसके लिए उन्होंने बकायदा कई जगह फरमान जारी कर इसपर बंदिश लगाने की कोशिश की है। उनकी नजर में यह एक तरह का स्वयंवर है।
उनके मुताबिक आदिवासियों का जवान लड़के-लड़कियों को इतनी आजादी देना ठीक नहीं है। उनका मानना है कि कई जगह पर इस परम्परा का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है और लड़कियों का शारीरिक शोषण भी किया जा रहा है। कई इलाकों में यह परम्परा पूरी तरह बंद तो नहीं हुई है, लेकिन कम जरूर हो रही है।

Wednesday, February 10, 2016

चंद्रहासिनी देवी का मंदिर,चंद्रपुर (Chandrahasini Temple,Chandrapur)

चंद्रहासिनी देवी का मंदिर चंद्रपुर, जांजगीर -चांपा जिले में स्थित है। महानदी के तट पर स्थित सिद्धपीठ मंदिर मां चंद्रहासिनी के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ बने पौराणिक व धार्मिक कथाओं की झाकियां समुद्र मंथन, महाभारत की द्यूत क्रीड़ा आदि , मां चंद्रहासिनी के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालुओं का मन मोह लेती है। चारों ओर से प्राकृतिक सुंदरता से घिरे चंद्रपुर की फ़िज़ा बहुत ही मनोरम है।

●महानदी और मांड नदी से घिरा चंद्रपुर, जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत रायगढ़ से लगभग ३२ कि.मी. और सारंगढ़ से २२ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ चंद्रसेनी देवी का वास है और कुछ ही दुरी (लगभग 1.5कि.मी.) पर माता नाथलदाई का मंदिर है जो की रायगढ़ जिले की सीमा अंतर्गत आता है।

●कहते है कि एक बार चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि को छोड़कर उदयपुर और रायगढ़ होते
हुए चंद्रपुर में महानदी के तट पर आ गईं। महानदी की पवित्र शीतल धारा से प्रभावित होकर यहाँ पर वे विश्राम करने लगीं। वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी उनकी नींद नहीं खुली। एक बार संबलपुर के राजा की सवारी यहाँ से गुज़री और अनजाने में उनका पैर चंद्रसेनी देवी को लग गयाऔर उनकी नींद खुल गई। फिर एक दिन स्वप्न में देवी ने उन्हें यहाँ मंदिर के निर्माण और मूर्ति की स्थापना का निर्देश दिया।

●प्राचीन ग्रंथों में संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिरनिर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है।

●देवी की आकृति चंद्रहास जैसी होने के कारण उन्हें ''चंद्रहासिनी देवी'' भी कहा जाता है। इस मंदिर की व्यवस्था का भार उन्होंने यहाँ के ज़मींदार को सौंप दिया। यहाँ के ज़मींदार ने उन्हें अपनी कुलदेवी स्वीकार कर पूजा अर्चना प्रारंभ कर दी। आज पहाड़ी के चारों ओर अनेक धार्मिक प्रसंगों, देवी- देवताओं, वीर बजरंग बली और अर्द्धनारीश्वर की आदमकद प्रतिमाएँ, सर्वधर्म सभा और चारों धाम की आकर्षक झाँकियाँ लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है।

ताज से 1100 साल पुरानी है प्यार की ये निशानी, प्रेमी नहीं, प्रेमिका ने बनवाया था : लक्ष्मण मंदिर

सिरपुर की ऐतिहासिक विशेषताओं का केंद्र लक्ष्मण मंदिर है। यह सिर्फ प्राचीन स्मारक नहीं बेपनाह मोहब्बत की निशानी है। इसका निर्माण ताजमहल से 11 सौ साल पहले रानी वासटादेवी ने राजा हर्षगुप्त की याद में करवाया था।

चीनी यात्री ने किया खुलासा...

वासटादेवी और हर्षगुप्त की प्रेम कहानी का उल्लेख हालांकि चीनी यात्री व्हेनसांग ने अपनी यात्रा वृत्तांत में किया था। वे छठवीं शताब्दी में सिरपुर आए थे। उनके यात्रा वृत्तांत के आधार पर ही सिरपुर में खुदाई चल रही है। तीन साल पहले खुदाई में मिले अवशेषों में यह सामने आया है कि इस मंदिर का निर्माण 635-640 ईस्वी के बीच हुआ था। वासटादेवी मगध नरेश सूर्यवर्मा की बेटी थीं जिनका विवाह श्रीपुर (अब सिरपुर) के राजा हर्षगुप्त से हुआ था। खुदाई में प्राप्त शिलालेखों के अनुसार हर्षगुप्त की मौत के बाद रानी ने उनकी याद में इस मंदिर का निर्माण करवाया था।

मिट्टी की ईंटों से बना है मंदिर

सिरपुर स्थित लक्ष्मण मंदिर मिट्टी की लाल ईंटों से बना है। यहां भगवान विष्णु के दशावतार अंकित किए गए हैं। खास बात यह है कि संरक्षण के विशेष प्रयास नहीं किए जाने के बावजूद अपने निर्माण के करीब 1500 साल बाद भी यह मंदिर अपने मूल रूप में खड़ा हुआ है। यह मंदिर दक्षिण कौशल की शैव और मगध की वैष्णव संस्कृति के मिलन का गवाह है। यूरोपियन साहित्यकार एडविन एमरल्ड ने ताजमहल को जीवित पत्थरों से निर्मित अगाध प्रेम की संज्ञा दी, वहीं लक्ष्मण मंदिर को लाल ईंटों से बना नारी के मौन प्रेम का साक्षी बताया।


बाढ़-भूकंप भी नहीं पहुंचाया पाया नुकसान

चीनी यात्री व्हेनसांग की यात्रा वृत्तांत के अनुसार छठवीं शताब्दी में सिरपुर एक आधुनिक राजधानी थी जहां विदेशों से व्यापार होता था। इसे वैभव की नगरी कहा जाता था। आधुनिक बाजार, अस्पताल, बंदरगाह, गहने और औजार के कारखाने होने के प्रमाण भी मिले हैं। इतिहासकारों के अनुसार 12वीं शताब्दी में भयानक भूकंप आया था जिससे पूरा सिरपुर जमींदोज हो गया था, इसके बाद 14वीं-15वीं शताब्दी में महानदी की विकराल बाढ़ में वैभव की यह नगरी पूरी तरह तबाह हो गई। लेकिन भूकंप और बाढ़ की त्रासदी के बाद भी लक्ष्मण मंदिर प्यार की अमर निशानी के रूप में खड़ा रहा

Tuesday, February 9, 2016

तातापानी : एक गर्म पानी का स्रोत (Tatapani : Hot Water Source)

तातापानी एक गर्म पानी का स्रोत है, यहाँ गर्म पानी लगातार बहता रहता है। गर्म पानी के स्रोत के पास पानी इतना गर्म होता है की अगर आप कपडे में चावल बढ़ कर पानी में रखे तो चावल पाक जाता है और ऐसा कहा जाता है की इस पानी से नहाने से त्वचा सम्बंधित रोग पूरी तरह से ठीक हो जाता है ।
पूरे साल इस पानी प्रवाह एक जैसा रहता है ।तातापानी जो बलरामपुर में स्थित है। अंबिकापुर से 95 किलोमीटर दूर है।

Monday, February 8, 2016

मदकू द्वीप... शिवनाथ नदी के बीच पर्यटन की अनूठी जगह (Madku Dweep)



बिलासपुर शहर से 39 किमी दूर बैतलपुर के पास शिवनाथ के बीचों-बीच पर्यटन की अनूठी जगह मदकू द्वीप। इससे अहम कि यह दो धर्म और आस्था का संगम स्थल है। सदानीरा शिवनाथ की धाराएं यहां ईशान कोण में बहने लगती हैं। वास्तु शास्त्र के हिसाब से यह दिशा सबसे पवित्र मानी जाती है।

राष्ट्रीय मसीही मेला : 107वें साल का समापन

मदकूद्वीप में राष्ट्रीय मसीही मेले का इस साल 107 वां वर्ष था। इस मौके पर सैकड़ों पादरियों व मसीही भक्तों ने मेले में एक से सात फरवरी तक शिरकत की। चारों ओर पानी से घिरे इस टापू में सुबह पांच बजे ही प्रभात फेरी निकलती थी। संगीत की धुन के साथ भजन गाते लोग पूरे टापू का परिक्रमा करते थे।

खास : दो द्वीपों के बीच बोटिंग, सन सेट व सोला फारेस्ट

24 हेक्टेयर में फैले मदकू द्वीप के पास ही एक और छोटा द्वीप 5 हेक्टेयर का है। दोनों बीच टूरिस्ट बोटिंग का आनंद ले सकते हैं। जैव विविधता से परिपूर्ण द्वीप में माइक्रो क्लाइमेट (सोला फॉरेस्ट) निर्मित करता है। यहां विशिष्ट प्रजाति के वृक्ष पाए जाते हैं। इसमें चिरौट (सिरहुट) के सदाबहार वृक्ष प्रमुख हैं।

अनोखे शिलालेख

1959-60 की इंडियन एपिग्राफी रिपोर्ट में मदकू द्वीप से प्राप्त दो प्राचीन शिलालेखों का उल्लेख है। पहला लगभग तीसरी सदी ईस्वी की ब्राह्मी लिपि में अंकित है। इसमें किसी अक्षय निधि का उल्लेख किया गया है। दूसरा शंखलिपि में है। दोनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन दक्षिण पूर्व मंडल कार्यालय विशाखापट्नम में रखे गए हैं।

Sunday, February 7, 2016

फ्लावर शो मैत्री बाग 2016 (Flower Show 2016),Maitri Bag,Bhilai

छत्तीसगढ़ में भिलाई मैत्रीबाग पर्यटकों को सहज ही आकर्षित करता है। हर साल भिलाई इस्पात संयंत्र के उद्यानिकी विभाग की ओर से “ फ्लावर शो ” मैत्री बाग का मुख्य आकर्षण है। प्रकृति प्रेमियों को इस शो का बहुत ही बेसब्री से इंतजार रहता है। इस साल रविवार को मैत्री बाग में फ्लावर शो लगा।शो में प्रदर्शन किए गए रखे गए फूलों की वेरायरी लोगों को खूब लूभा रही थी। इस शो के माध्यम से पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने लोगों में जागरुकता लाने के प्रयास की तारीफ की जानी चाहिए।









फ्लावर शो मैत्री बाग 2016 (Flower Show 2016),Maitri Bag,Bhilai

छत्तीसगढ़ में भिलाई मैत्रीबाग पर्यटकों को सहज ही आकर्षित करता है। हर साल भिलाई इस्पात संयंत्र के उद्यानिकी विभाग की ओर से “ फ्लावर शो ” मैत्री बाग का मुख्य आकर्षण है। प्रकृति प्रेमियों को इस शो का बहुत ही बेसब्री से इंतजार रहता है। इस साल रविवार को मैत्री बाग में फ्लावर शो लगा।शो में प्रदर्शन किए गए रखे गए फूलों की वेरायरी लोगों को खूब लूभा रही थी। इस शो के माध्यम से पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने लोगों में जागरुकता लाने के प्रयास की तारीफ की जानी चाहिए।