Monday, March 21, 2016

यहां एक बाल रख दें तो दुनिया के सारे बंधन तोड़ चली आती है प्रेमिका

देश में अनगिनत देवी मंदिर हैं, जहां अपनी-अपनी अनोखी मान्यताएं हैं। संतान, विद्या, दौलत की मन्नतें मांगने लोग अलग-अलग देवियों की शरण में जाते हैं। लेकिन बस्तर की मुकड़ी मावली देवी कुछ खास है। इनके पास लोग अपने प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी या पसंद के महिला-पुरुष का प्यार पाने की मन्नत मांगने आते हैं।


ऐसे मांगते हैं मन्नत
- जिस व्यक्ति को वश में करना हो, उसकी फोटो/बाल/इस्तेमाल किए गए कपड़े/कदमों की धूल लेकर आना होता है।
- इच्छित व्यक्ति का नाम लेते हुए निशानी को मंदिर के पास पत्थरों के नीचे दबा दिया जाता है।
- मन्नत पूरी हो जाने पर मां के सामने मुर्गा, बकरा, बत्तख या जिस भी पशु-पक्षी बलि देंगे, ये पुजारी को बताना होता है|

छुप-छुपकर आते हैं लोग
- मंदिर की देखरेख करने और लोगों को मन्नत मांगने के तौर-तरीकों में मदद के लिए वहां पुजारी मनोहर सिंह रहते हैं।
- उनका कहना है कि मन्नत मांगने के बाद इच्छित प्रेमी या प्रेमिका दुनिया के सारे बंधन तोड़कर चली आती है।
- काम बनते ही व्यक्ति अपने साथ मनौती की चीजें लेकर आता है, जिसकी बलि चढ़ाई जाती है।
- मंदिर में कभी इक्का-दुक्का लोग आते हैं, तो किसी-किसी दिन 50-60 लोग भी पहुंच जाते हैं।
- पुजारी के मुताबिक बहुत से लोग तो यहां छुपकर आते हैं और उनकी पहचान को गुप्त रखा जाता है।

महिलाएं भी पीछे नहीं
- मुकड़ी मावली की शरण में पहुंचने वालों में महिलाओं की संख्या भी काफी रहती है।
- मंदिर के आस-पास पत्थरों में दबाकर रखे गए फोटोग्राफ्स और कपड़े इस बात की पुष्टि करते हैं।
- परायी औरत की ओर आकर्षित हो रहे पति पर काबू पाने की मन्नत लिए महिलाएं भी यहां आती हैं।

महिलाओं की मंदिर में इंट्री बैन
- महिलाओं को इस मंदिर में आने या प्रसाद ग्रहण की मनाही है, वे देवी की मूर्ति रखी जगह पर नहीं जा सकतीं।
- वे करीब 50 मीटर दूरी पर रुककर पुजारी को अपने साथ लेकर आई हुई चीजें और मनोकामना के बारे में बताती हैं।
- जिन पुरुषों की पत्नी रजस्वला (Menstruate) या गर्भवती हो, उनको भी प्रसाद ग्रहण करने की मनाही होती है।
- मंदिर का प्रसाद घर ले जाना भी मना है। मान्यता है कि इससे अपशकुन होता है।

घने जंगल के बीच स्थित है मंदिर
- दंतेवाड़ा जिले में छिंदनार से करीब 4 किलोमीटर दूर के घने जंगल के बीच स्थित है मंदिर।
- मंदिर से बमुश्किल 300 मीटर की दूरी पर इंद्रावती नदी बहती है।
- करीब 3 फीट ऊंची देवी प्रतिमा पहले खुले आसमान के नीचे थी।
- पुजारी परिवार ने पब्लिक के सहयोग से कुछ साल पहले मंडपनुमा पक्की छत बनवा दी।
- पुजारी का परिवार पीढ़ियों से मां की सेवा करता आ रहा है।

साभार : दैनिक भास्कर समाचार पत्र 

Thursday, March 17, 2016

तुलार गुफा (Tular Gufa)

तुलार गुफा ..यह जगदलपुर से 132 किमी दूर स्थित है। वैसे तुलार गुफा बीजापुर जिले के भैरमगढ़ ब्लॉक अंतर्गत स्थित है। पर अधिकांश लोग बारसूर से तुलार गुफा दर्शन के लिए जाते है बारसूर से तुलार गुफा तक जाने के लिए 35 किमी लंबा रास्ता पैदल ही तय करना होता है तुलार गुफा दूसरे गुफा से अलग इसी लिए है क्यों की इस गुफा का शिवलिंग जिस जगह पर स्थापित हैं, वहां पर गुफा के ऊपरी हिस्से से पानी लगातार रिसता रहता है। इस गुफा में पूजा करने वाले पंडित व वहाँ मौजूद लोगो के हिसाब से चंद्रमा की स्थिति के अनुसार पानी की मात्रा व वेग कभी काम व कभी ज्यादा होती रहती है। शिवलिंग पर रिस कर गिरने वाले पानी को ग्रामीण व श्रधालु गंगा जल जैसा पवित्र मानते है व तुलार गुफा दर्शन के बाद इसे अपने साथ ले जाते है। एक मान्यता के मुताबिक बाणासुर की साधना स्थली के रूप में भी इस जगह को जाना जाता है। बारसूर होते हुवे कोड़नार घाट से इंद्रावती नदी पार करने के बाद गोदुम, कोसलनार, मंगनार, गांव होते हुए तुलार गुफा पहुंचा जा सकता है।


इस जगह के अलावा चित्रकोट, देवड़ा, गढ़धनोरा, चपका, गुप्तेश्वर, रामाबूटी, बचेली समलूर में भव्य महाशिवरात्रि मेले का आयोजन किया जाता है और कोटमसर की गुफा में प्राकृतिक रूप से तैयार शिवलिंग, बैलाडीला पर स्थित रामाबूटी, बचेली स्थित लिंगेश्वर मंदिर व फूलपाड़ जलप्रताप के ऊपर स्थापित शिवालय में भी श्रधालुओ की भारी भीड़ जुटती है। 

Wednesday, March 16, 2016

खुड़िया बांध बिलासपुर (Khudiya Dam Bilaspur)

खुड़िया बांध, बिलासपुर के लोरमी ब्लॉक जो बिलासपुर से 85 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह प्राकृतिक संसाधनों और सुंदरता के लिए बहोत प्रशंसा के लायक है। बिलासपुर को छत्तीसगढ़ के मुख्य धान का कटोरा माना जाता है। यह भूमि की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साथ भेंट की है। बिलासपुर में खुड़िया  बांध के सुरम्य सुंदरता, पर्यटकों पर एक जादू सा है। यह आकर्षक प्राकृतिक विविधता के साथ बहोत ही संपन्न है।

बिलासपुर खुड़िया  बांध का दौरा आपका खूबसूरत स्मारकों, असाधारण वन्यजीव, प्रवीणता से नक्काशीदार मंदिरों, महलों, झरने, बौद्ध स्थलों गुफाओं, रॉक पेंटिंग और पहाड़ी पठारों के लिए एक दर्शनीय स्थलों के दौरे मे से एक हैं। यह पूरे छत्तीसगढ़ क्षेत्र के पर्यटन के लिए एक आकर्षक और कई ऐतिहासिक और स्वाभाविक रूप से महत्वपूर्ण स्थानों के साथ है।

यदि आप प्रसिद्ध खुड़िया बांध बिलासपुर में यात्रा की योजना बना रहे हैं, तो बिलासपुर छत्तीसगढ़ के पूर्वी भाग में स्थित है। बिलासपुर के कुल क्षेत्र के बारे में वर्ग किमी +६३७७ है। हाल के दिनों में जिले नई बिलासपुर, कोरबा और जांजगीर - चंपा में बांटा गया है।

खुड़िया बांध, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में स्थित है। यह लोरमी के निकट स्थित है और अपनी आकर्षक वातावरण के लिए प्रसिद्ध है। मरकत हरी भूमि और प्राकृतिक खड़िया बांध के पानी न केवल बहने पर अपनी दिल को छूने लायक भी है। 

सरोदा जलाशय कवर्धा (Saroda Reservoir Kawardha)

•परिचय:
नवगठित राज्य (1998) के कवर्धा जिले के एक महत्वपूर्ण पर्यटन के आकर्षण का केंद्र है सरोदा जलाशय । कवर्धा मे सबसे दिलचस्प और आकर्षण है सरोदा जलाशय।

•सरोदा जलाशय का इतिहास:
भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के कवर्धा जिले में सरोदा जलाशय 11 वीं सदी ई. में स्थापित किया गया माना जाता है।

•सरोदा जलाशय का विवरण:
सूर्यास्त के शानदार दृश्य के साथ सरोदा जलाशय का दृश्य देखने लायक रहता है, और यह एक सरकार की देखरेख मे आकर्षण का एक केंद्र है। यहा आप विभिन्न गतिविधियों का दृश्य सरोदा जलाशय के आसपास देख सकते है और आनंद उठाया सकते है। यहा आप विभिन्न गतिविधि के साथ तैराकी, मछली पकड़ने, और नाव की सवारी भी कर सकते है।

सरोदा जलाशय कवर्धा शहर से 12 किलोमीटर की दूर पर स्थित है।

कवर्धा पैलेस कवर्धा (Kawardha Palace Kawardha)

•कवर्धा पैलेस परिचय:
कवर्धा पैलेस, कवर्धा मे 1930 के दशक में निर्मित किया गया एक विरासत स्थल है जो मैकल हिल में स्थित है। यह महल अब एक विश्व स्तर के होटल कवर्धा मे जो भारत में कवर्धा पैलेस के रूप बहोत ही प्रसिद्ध है।

•कवर्धा पैलेस का इतिहास:
कवर्धा पैलेस को डिज़ाइन और बनवाया गया है महाराजा धरमराज सिंह के द्वारा 1936 और 1939 की अवधि मे। यह अब एक कवर्धा में प्रधानमंत्री पर्यटक का आकर्षण का केंद्र है।

•कवर्धा पैलेस का विवरण:
कवर्धा पैलेस, छत्तीसगढ़ के समुद्र स्तर से ऊपर 941 मीटर की ऊंचाई पर मैकल रेंज में स्थित है। महल ग्यारह एकड़ भूमि में फैला हुआ है और इतालवी संगमरमर और पत्थर के साथ बनाया गया है।

कवर्धा पैलेस के मुख्य प्रवेश द्वार पर हाथी दरवाजा, (जो हिंदी में हाथी गेट) स्वागत के लिए है। हाथियों की अध्यक्षता को अतीत का शाही निशान माना जाता है। एक शानदार गुंबददार और सुंदर कवर्धा पैलेस, कवर्धा के दरबार हॉल भी संगमरमर सीढ़ियां और सुंदर आंगनों द्वारा चिह्नित है।

कवर्धा पैलेस रायपुर से (रायपुर से 140 किलोमीटर), जो छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी है से आसानी से पहुँचा जा सकता है। और बिलासपुर शहर से 124 किमी की दूरी पर स्थित है। 

Tuesday, March 1, 2016

मंडवा महल (Mandwa Mahal)

भोरमदेव मंदिर के पास एक और महत्वपूर्ण एतिहासिक स्मारक मंडवा महल दर्षनीय हैं। जो कि भोरमदेव से लगभग 1 किमी. की दूरी पर स्थित  हैं। मंडवा महल को नागवंशी राजा और हैहवंशी रानी के विवाह के स्मारक के रूप में जाना जाता हैं। स्थानीय बोली में मंडवा का अर्थ विवाह पंडाल होता हैं। वैसे तो मूल रूप से मंडवा महल एक शिव मंदिर था परंतु इसका आकार विवाह के शामियाना की तरह होने के कारण इसे मंडवा महल के रूप में जाना जाता हैं। इसे दुल्हा देव भी कहा जाता हैं।







नागवंशी सम्राट रामचंद्र देव ने सन 1349 में यहां मंदिर का निर्माण कराया। जिसके गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित हैं और यह मंडप 16 स्तंभो पर टिकी हुर्इ हैं। इस मंदिर के बाहय दीवारो पर बेहद सुंदर ऐवम  कामोत्तेजक मूर्तियां बनार्इ गर्इ हैं। इन दीवारों पर चित्रित कामोक मूर्तियां विभिन्न 54 मुद्राओं में दर्शायी गयी हैं। यहां सारे आसन कामसूत्र से प्रेरित हैं। जो कि वास्तव में अनंत प्रेम और सुंदरता का प्रतिक हैं। यह सारे चित्रण कलात्मक दृषिट से भी महत्वपूर्ण हैं। तत्कालीन नागवंषी राजाओं का तंत्रपर अत्यधिक विश्वास करते थे। जैसा कि दिवारों पर बने हल्दी के निशानों से इसका संकेत मिलता हैं। कि विवाह और अन्य अनुष्ठानों के समय इनका प्रर्दशन  किया जाता रहा होगा।
भोरमदेव मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही अपनी वास्तुकला की पृष्ठ भूमि के लिए भी अद्वितीय हैं। यह मंदिर मुख्यत: दो भागों में बना हैं। इसके एक भाग में .   मंदिर बनाया गया एवं दूसरे भाग को पत्थरों पर नक्काशी के द्वारा निर्मित किया मुख्य भोरमदेव मंदिर सुरम्य एवं शांत झील के सामने बना हैं। इस मध्य युगीन मंदिर 5 फीट उंचे स्थान पर मंडप अंतराल और गर्भगृह के मिलाकर बनाया गया हैं। पूर्व मुखी मंदिर में  पश्चिम  को छोड़कर तीनों दिशाओं पर द्वार हैं। र्इंट निर्मित मंदिर भी गर्भगृह के समान हैं। परंतु यहां मंडप नहीं बना हैं। और खुली दिवार ही हैं जिसे .....कहा जाता हैं। इस मंदिर के उपर भी भोरमदेव मंदिर जैसा ही आकार बनाया गया हैं। परंतु इसकी चोटी का भाग मध्य में टूटा हुआ है। गर्भगृह के प्रवेश द्वारा पूरी तरह से पाषाण निर्मित हैं जिसका केंद्र स्तंभ आसपास के तीन स्तंभों से जुड़ा हुआ हैं। मुख्य मंदिर के बाहर शिवलिंग और उमा महेष्वर की मूर्तियां स्थापित हैं। उनके सामने राजा और रानी उपासना कर रहे हैं।

माता मड़वारानी मंदिर (Mata Madwarani Mandir)

आदिशक्ति पर्वतवासिनी माँ मड़वारानी दाई के पावन स्थान का भौगोलिक स्थल का विवरण राजस्व एवं मानचित्र के आधार पर भारत गणराज्य के प्रांत छत्तीसगढ़ राज्य के जिला-कोरबा, तहसील करतला, पुलिस चैकी उरगा व जिला-कोरबा,के अंतर्गत उपतहसील क्षेत्र बरपाली के राजस्व ग्राम मड़वारानी (खरहरी), बीरतराई, महोरा, झीका, कुररहीया, भैसामुडा, सन्डैल, बरपाली, पुरेना, परसाभांठा, जर्वे के आम निस्तार एवं उपयोग में माता मड़वारानी दाई के निवास स्थल मड़वारानी पहाड़ की चोटी पर स्थित है। मड़वारानी पहाड़ कोरबा चाम्पा मुख्य सड़क मार्ग से मड़वारानी(खरहरी) ग्राम से कोरबा चाम्पा मुख्य सड़क के बीरतराई, नाका, भाठापारा महोरा होकर झीका से एवं कुररहीया,भैसामुडा, संन्डैल, बरपाली से तथा पुरेना से जाने के लिए माता मड़वारानी के पावन स्थल पर जाने हेतु पगडंडी रास्ता था, जो बिहड जंगलों मे पार करके जाना होता था, आने जाने के लिए कोई स्थाई रास्ता नहीं था, आने जाने में पहाड़ के कई मार्गों में भटकते- भटकते जाना पड़ता था, उस समय पहाड़ उपर स्थित ऊंचे-ऊंचे पेड़ एवं पत्थर चटृटान को ही आधार मानकर चलते थे तथा उसी के आधार पर आने-जाने का मार्ग था। बीरतराई के पहाड़ के नीचे-नीचे महोरा के बस्ती के उपर पहाड़ वालीनाला, झोरखा को पार करते हुए झीका के उपर कटीले मार्ग से होते हुए माता के स्थान पर पहाड़ उपर पहुंचते थे तथा खरहरी, जर्वे से नीचे से पुरेना, बरपाली के आगे पहाड़ किनारे जो सन्डैल, भैसामुडा, कुररहीया के पास चुहरी से जाते थे तथा ग्राम वासियों द्वारा निस्तार लकड़ी, पशुओं के चारागाह एवं आम निस्तार, लकड़ी, पशुओं के चारागाह एवं आम निस्तार के रास्ते से आना-जाना करते थे। इसी के आधार पर माता के पावन स्थल पर पहुचने का मार्ग, रास्ता, पगडंडी का जो नाला,पत्थर, झाड़ी से अव्यवस्थित था। उक्त मड़वारानी पहाड़ घने काले जंगल जहाँ माता मड़वारानी दाई के चोटियों से ठीक नीचे देखने पर हसदेव नदी है। तथा पहाड़ के अंतिम छोर के अगल-बगल पूर्णतः खाई है जो पत्थर के चट्टान हैं उसमे नीचे उतरने या चढनें का कोई स्थान नही है नीचे पर्णतः खाई है, इसी अंतिम स्थल पर माता का स्थान है जहाँ पर पहले का कलमी का पेड़ था जहाँ पर बेल के वृक्ष चारों तरफ फैले हुए हैं तथा उस कलमी पेडत्र के स्थान पर छोटा मंदिर था जिसका अभी वर्तमान में भव्य मंदिर नवनिर्माण कार्य पिंण्ड मूल स्थान पर निर्मित हो रहा है। पहले वहाँ जाने के लिए थोड़ा सा नीचे उतरने पर खाई स्थल को थीपापानी कहते है जो जो बारो मास पानी बूंद-बूंद कर सीचता रहता है जो माता की कृपा से है। पहाड़ उपर ही कई छोटे बड़े पहाड़ है। जिसके बीचो बीच बड़ी-बड़ी खाई सहित नाला है जो देखने एवं चढ़ने में अत्यंत दुर्गम स्थान तथा चारों तरफ पहाड़ है। पहाड़ के नीचे मुख्य कोरबा चंापा मार्ग पर आने से सोन नदी है। माता के पावन स्थान मड़वारानी पहाड़के चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य,शक्ति विराजमान है। उस आदिशक्ति माता के पावन स्थल के सामने में उस स्थान तालाब पहाड़ में था जहाँ माता जी स्नान करती थी वर्तमान में तालाब नही है।
पहाड़ उपर पत्थर के चट्टान जो सुरंग में बना है जिसे बड़े खेलिया कहते हैं वहा पर जंगल में विचरण करने वाले जीव जंतु विचरण करते थे पहाड में एक स्थान पर बहोत ज्यादा सराई का वृझो से आच्छादित है जिसे सरैया कहते है जहां कि जंगल में रहने वाले जन्तु विचरण करते है। जिनके साक्षात दर्शन एवं पद चिन्ह हमेशा मिलते थे जिसमें शेर (बाघ) था जो माता की सवारी है उसका दर्शन एवं पद चिन्ह को देखने के मिलते थे, जिसे शेर (बाघ) के नाम से डरते थे लेकिन माता की सवारी का पदचिन्ह देखकर प्रणाम कर आत्मा सन्तुष्टी मिलती थी। यहां बंदर,छोटे बड़े सभी प्रकार के मिलते है। पहाड़ ऊपर ही विशाल रूप में फैले है जो बडे-बड़े पेड़ एवं नाला झरोखा से बने गडढ़े जो पत्थर को काटकर कुएं की तरह बना उसमें जो पानी दिखता है वह काला हैं। लेकिन उस पानी को उस कुंड से बाहर निकालने पर वह साफ स्वच्छ एवं मीठा जल है। जो स्वादिष्ट एवं औषधी की तरह है, जिसे पीने पर शरीर की सम्पूर्ण थकान दूर हो जाती है और तरो ताजा हो जाती है।
मड़वारानी पहाड़ के स्थल से नीचे के बाद सीधे रास्ते में दाहिने दिशा में जाने पर पहाड़ है उसे जालादारी कहते है। पूर्व में जहां घने जंगल होने से आस पास के जो जंगली पशुओं जानवरों का शिकार करते थे वे लोग यहाँ आकर अपनी जाल को फैलाते थे एक ओर से घेरते हुए जाने पर मनमुग्ध पशु उस जाल में फस जाते हैं इस कारण इस स्थान को जालाद्वारी कहते हैं। बीरतराई भाटापारा के पहाड़ के ठीक मोड में चिराई खोल है, जहां बडे-बडे घने पेड़ एवं पक्षी अधिक रहते थे तथा उस स्थान पर गिद्राईल,सुआ, गेटूर नामक पक्षी बहुत अधिक थी। उसी के पास हाथी जैसे बहुत बड़े चट्टान की पत्थर है। तथा वहां पर पत्थर के चट्टान के नीचे सुरंगे है जहां अंदर नीचे खाली जगह है जहां पर अंधेरा काला स्थान है कितना लम्बा स्थान है अभी तक ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है। बीरतरई गांव के ठीक उपर चीतवामाडा है जहां पुराने जमाने पर चीता निवास करता था, जंगल कटने पर वर्तमान केवल गिदराईल पक्षी, मयुर, खरगोस अन्य पशु पक्षी रहते है चीतामाडा मे अंदर माडा है पहाड़ पर स्थित उपर चट्टान के बाद पेड वृक्ष है लेकिन ठीक नीचे काले पत्थर का चट्टान है जिसके नीचे दो बड़े-बड़े सुरंग है जहां चीता बैठकर आराम करता था इस कारण उसे चीतामाडा कहते हैं।
पहाड़ के ठीक नीचे बीरतराई ग्राम है जो पुरातत्व की धरोहर है, यहां पुराने वर्षो मे देवराज (देवस्थल) के पास कुण्ड़ थ जिसे अमृत कुंड कहते थे जो व्यक्ति उस कुंड के पानी को पी लेता था वह अधिक बलवान हो जाता थ तथा उस कुंड के पानी को जिस हथियार ने छुआने के बाद वह धारदार हो जाता था तथा बड़े से बडे वृक्ष को काटा करता था अमृत कुंड के पानी को पीकर बलवान हो जाते थे तथा वह अपनी उस ताकत का दुरूपयोग करने लगे तथा उस कुंड को पाट दिया गया। वही पर बडकामुड़ा नामक बहुत बड़ा तालाब है जो पहाड़ के ठीक नीचे है उस पहाड़ के नीचे में देव स्थान है जहां पर छहमाषी रात में मंदिर निर्माण हो रहा था, मंदिर बनाते-बनाते निर्माण में उपयोग होने वाले छीनी कही गिर गया जिसे बहुत ढूंढते रहे थे तथा मंदिर निर्माण का शर्त था कि अंधेरी रात में निर्माण होना था यदि प्रकाश जलाने पर शर्तें के अनुसार निर्माण ध्वस्त हो जावेगा लेकिन मंदिर निर्माण में उपयोग होने वाले छिनी को ढूंढने के लिए प्रकाश जलाया गया जैसे ही प्रकाश फैला मंदिर निर्माण ध्वस्त हो गया तथा उसके अवशेष अगल बगल में बिखर गयी मंदिर में स्थापित होने वाले देवी देवता की मूर्ति यत्र-तत्र मिट्टी टीला में दबा हुआ है तथा कृषकों के खेत में भी दूर-दूर तक फैले है जो कृषक खेमनलाल के खेत की खोदाई करने पर, खेती करने पर, खेती करने से जमीन के नीचे पड़े भूमि पर राम-सीता, लक्ष्मण, भरत मिलन, गणेश, शीतला मां, हाथी, घोड़ा, विष्णु भगवान, कलश, गंगार के साईज की निकली है। जिसमें से कुछ मुर्ति पुरातत्व विभाग द्वारा धरोहर के रूप में रखने के लिए कोरबा स्थित पुरातत्व संग्रालय में लाये हैं तथा शेष बडकामुडा तालाब में स्थित प्राचीन मंदिर में रखे है तथा शिवलिंग को कनकी ले जा रहे थे तो सात बार बैलगाडी टुटा एवं शिवलिंग भी दो टुकडा हो गया जिसमें एक हिस्सा कनकी के मंदिर में है दुसरा हिस्सा बीरतराई स्थित शंकर भगवान की मंदिर है तथा बोईरहा तालाब में कालीमाता एवं तालवा में भईसासुर सर्पिन, सत बहिनिया के पूजा तथा ठाकुर देवता के पूजा अर्चना आज भी होते आ रहा है, बताते है कि संसार के अढ़ाई दिन के खर्चा, धन दौलत देउर स्थान जहां मंदिर का निर्माण हो रहा था वहाँ स्थित है।
मुख्यमार्ग कोरबा-चाम्पा के मडवारानी पहाड के किनारे में खरहरी ग्राम स्थित है, इस ग्राम में पानी का बहाव ठहर नहीं पाता था तथा वर्षा की पानी भी नही रूकता था, और पहाड़ से निकलने वाली पानी का बहाव खरहरी से निकल कर सोन नदी में बह जाने इस कारण इसे खरहरी कहते है यहां खरहरी पाठ में पूजा अर्चना होती है।
पहाड़ के नीचे ग्राम पुरेना है जहां पहले पुरेनिया तालाब के पास ग्राम का बस्ती था, इस तालाब में सोने चांदी के बड़े-बड़े गंगार थे जिसकी सुरक्षा स्वयं माता जी करती थी उस तालाब में मछली पकड़ने लिए नाव लेकर जाने पर एक भी मछली नही मिलती थी एवं ऐसी ही पकडने पर मछली मिल जाती थी, कहते है कि सोन नदी के नरई दहरा से उड़द दाल को धोने से दाल के साथ छिलका प्रवाह में परेनिहा जर्वे तालाब में निकलता था। ठाकुर देव हैं खरहरी एवं पुरेना में पहाड़ कनारे पर कोठी खोला नामक स्थान जो भौगोलिक रूप से छत्तीसगढ़ के किसानों द्वारा खेती से उपज धान को रखने के लिए कोठी बने है कोठीखोला में बहुत बड़े-बड़े झाड़ है। वैसे ही पूरे क्षेत्र में विस्तार से देखने पर कोठीखोला से आवाज लगाने पर बाघमाडा में सुनाई पड़ता था।
पुराने समय में बरपाली में बाजार बैठता था वहां से चुहरी जाने का रास्ता है चुहरी में पानी की श्रोत है जहां पानी महेशा मिलता है जहां पर भैंसामुडा, सन्डैल कुररीहा के लोग चुहरी होकर माता के स्थान पर जाते है उसके अलावा और रास्ता कुररीहा से नहीं है कुररीहा एवं झिका मड़वारानी पहाड़ के नीचे स्थित है जहां से सीधा जाने का रास्ता नही है पहाड़ से नीचे सीधे खाई है उसके बाद बस्ती बसा बसा है बस्ती के नीचे हसदेव नदी अपने करतल स्वर प्रवाहित होते चले आ रही है। माता मड़वारानी दाई के चरणों को धोकर प्रमाण कर रही है। प्राचीन समय में घने जंगल था कटिले रास्ते में बड़े-बड़े नाला था जिसके आवागमन दुर्गम था पगडंडी रास्ता एवं अंदाजा रास्ता अपनाकर चलना पड़ता था, कालन्त में माता की कृपा से माता की स्थल को स्थल को संधारण व्यक्ति करने के लिए समय-समय पर आस पास के ग्रामीणों की समूह एवं पुजारी बैगा द्वारा सभी मिलकर माता के द्वारा चरवाहा एवं आम लोगों को दिए सपने के अनुरूप पूजा पाठ करते चले आ रहे हैं।
वर्तमान में माता के श्रध्दालु भक्त के आने जाने के लिए सीधी, रास्ता, कच्ची, पक्की रोड, बिजली की व्यवस्था मंदिर एवं स्थल का नवनिर्माण किया गया। तथा मड़वारानी दाई के प्राचीन मंदिर का जिर्णोधार नव निर्माण कार्य प्रगति पर है। वर्तमान में माँ मड़वारानी सेवा एवं जनकल्याण समिति पंजीयन क्रमांक 368 वि.सं.जिला कोरबा का गठन कर समिति के द्वारा माता की कृपा से पैदल चलने के रास्ते कच्ची रोड़ का निर्माण जन सहयोग एवं शासन का कुछ सहयोग से किया गया है जिसमें नीचे मड़वारानी से पहाड़ उपर जाने का रास्ता का निर्माण किया गया, समिति के सचिव श्री विनोद साहू के नेतृत्व में पूर्वमंत्री श्री मेघाराम साहू से सम्पर्क कर माता के दर्शन हेतु श्रध्दालुओं की व्यवस्था माता की कृपा से की मेघाराम साहू ने मुख्यमंत्री रमन सिंह से घोषणा आम सभा में कराया गया। जिसके परिणाम स्वरूप 01 कि.मी.सी.सी.का निर्माण हुआ तथा पीने के पानी की व्यवस्था के घोषणा पर पाईप लाइन बिछाकर कुछ दूरी तक पानी की व्यवस्था किया गया है।
शासन के सहयोग से समिति के पूर्व सरंक्षक श्री पिताम्बर कंवर द्वारा एवं पहाड़ उपर हेड पंप बोर खुदाई का कार्य कराया गया जहां बोर से कम मात्रा में पानी मिलता रहता है।
मंदिर के पूर्व में पूजारी छत्तू भगत द्वारा जन सहयोग से सीढी की निर्माण कराया था तथा थीपा पानी को इकट्ठा कर लोगों को पीने के पानी की व्यवस्था के लिए स्थान को बनवाया था, कोरबा निवासी श्री के.एन.सिंह ने चुहरी से पहाड़ उपर जाने के लिए रास्ते पर सीढ़ी का निर्माण कराया है तथा मड़वारानी नीचे से पहाड़ उपर जाने के कच्ची रोड पर माँ मड़वारानी सेवा एवं जनकल्याण समिति द्वारा श्री संतोष सोनी की माता श्रीमती चन्द्रकली सोनी की स्मृति में हनुमान मंदिर का निर्माण किया गया है जिसमें श्री दुखीराम निषाद जी का विशेष सहयोग रहा एवं माता मड़वारानी दाई के पावन स्थल पर राम मंदिर का निर्माण हुआ है।
माता मड़वारानी दाई के पावन स्थल पर जन सहयोग से आस-पास के ग्रामीणों द्वारा मिलकर मंदिर बनवाया था जो पूर्व में छोटा था जिसे माँ मड़वारानी सेवा एवं जनकल्याण समिति मड़वारानी पंजीयन क्रं.368 ने बडे रूप से परिवर्तित किया है एवं श्रध्दालुओं के द्वारा निर्मित मंदिर परिसर को मां मड़वारानी दाई की कृपा से समिति के माध्यम से माता की कृपा पर भव्य रूप मे निर्मित किया जा रहा हैं। जहां माता के नवरात पर्व ज्योति कलष मनोकामना प्रज्जवलित होता है जिसका विसर्जन हसदेव नदी एवं सोन नदी में दोनो स्थान पर करते हैं ।
इस प्रकार से माँ मड़वारानी दाई के पावन स्थल मड़वारानी पहाड़ उपर स्थित है, जहां उसके तराई में बसे सभी ग्रामों की जनता की अराध्य देवी है जहां प्राकृतिक छटा, चारों ओर हरियाली दिखाई देती है। भौगोलिक रूप से गुगल में मड़वारानी दाई के पावन स्थल मंदिर एवं आवागमन की रास्ता परिलक्षित होती है जहां वर्तमान में रेल्वे स्टेशन मड़वारानी दाई के नाम पर बना है तथा मड़वारानी पहाड़ के नीचे बसे ग्राम खरहरी को अब मड़वारानी के नाम से जाना एवं पहचाना जाता है माता की कृपा से मुख्यमार्ग पर मड़वारानी दाई की मंदिर स्थापित किया गया है जो पहाड़ चढ़ने में परेशानी एवं रास्ता का अभाव था इस कारण स्थापित किया गया है।
मड़वारानी दाई की महिमा एवं अपार श्रध्दा के कारण तराई के सभी ग्रामों में मड़वारानी दाई की पुजा अर्चना धुम धाम से होती है इस कारण ग्राम कोथारी, बरपाली, सरगबुंदिया की एवं आस-पास के बहुत से ग्राम में माता मड़वारानी दाई की मंदिर निर्माणकर मड़वारानी दाई को स्थापित करके प्रतिदिन पुजा अर्चना करते है। माँ मड़वारानी के पावन स्थल पूर्णतः जंगलपर स्थित है।

कैसे पहुंचे 
कोरबा -चाम्पा रेल्वे मार्ग पर मड़वारानी रेल्वे स्टेशन से उतरकर मेन रोड़ मे स्थित मड़वारानी (खरहरी) के नीचे से पहाड ऊपर जाने के लिये कच्ची रोड़ 4 कि.मी. एवं 1 कि.मी. सी.सी.रोड़ से दुपहिया और चार पहिया वाहन एवं पैदल पहुंचा जा सकता है।
मेन रोड़ कोरबा चाम्पा के वीरतराई नाका होकर वीरतराई, महोरा झीकासे पहाड़ ऊपर पैदल चढ़ने का रास्ता कच्ची पगडंडी है।
मेन रोड़ कोरबा-चाम्पा के बरपाली बस स्टैण्ड से तथा सरगबुंदिया रेल्वे स्टेशन से चुहरी तक कच्ची रोड़ एवं चुहरी से सीढ़ी द्वारा मंदिर तक जाने का रास्ता है।
भैंसामुडा-सन्डैल के कच्ची रास्ता से चुहरी होकर सीढ़ी से चढकर मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।

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कोरबा (Korba)

छत्तीसगढ़ की ऊर्जा राजधानी कोरबा हरे-भरे जंगलों से भरा है और अहिरन तथा हसदेव नाम की दो नदियों के संगम पर स्थित है। यह 252 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ पर कई विद्युत उत्पादन ईकाइयाँ स्थित हैं जो छत्तीसगढ़ के लिये आवश्यक विद्युत ऊर्जा की स्रोत हैं। कोरबा की कोयला की खानें भी क्षेत्र में स्थित हैं। यहाँ के लोगों की स्थानीय भाषा छत्तीसगढ़ी है।
यहाँ की जनसंख्या का ज्यादातर भाग जनजातीय लोगों का है और आदिवासी, गोंड, कवर, बिंजवर, सतनामी, राज गोंड क्षेत्र में पाये जाने वाले कुछ जनजातीय समूह हैं। भारत के प्रमुख पर्वों के अलावा क्षेत्र में पोला, हरेली, कर्मा, देव उठनी आदि स्थानीय जनजातीय पर्व भी मनाये जाते हैं। पोला पर्व बैलों की पूजा के साथ मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान बैलों की दौड़ का आयोजन किया जाता है। हरेली सावन के महीने में किसानों द्वारा मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पर्व है। किसान अपने कृषि सम्बन्धी औजारों की पूजा करते हैं।
यह क्षेत्र सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के मामले में धनी है। यह क्षेत्र उत्तम किस्म के रेशम कोसा के उत्पादन के लिये भी लोकप्रिय है जिसका उपयोग उच्च गुणवत्ता वाले कपड़ों के निर्माण में किया जाता है जिनसे फिर वस्त्र और पर्दे बनाये जाते हैं। कोसा साड़ियाँ विश्व प्रसिद्ध हैं। कोसा साड़ियों को हाट या स्थानीय बाजारों में बेंचा जाता है।

कोरबा और इसके आसपास के पर्यटक स्थल

कोरबा और इसके आसपास के क्षेत्र के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों में मड़वा रानी, कोसागईगढ़, केंदई झरने और चैतुरगढ़ का किला शामिल हैं। यहाँ के मन्दिर और किले देखने लायक हैं। इसके अलावा यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता भी कई पर्यटकों को आकर्षित करती है। सुन्दर केंदई झरना भी पर्यटकों के लिये लुभावना दृश्य प्रस्तुत करता है। चैतुरगढ़ का किला क्षेत्र का प्रसिद्ध किला है और नव रात्रि के दौरान यहाँ भारी संख्या में पर्यटक आते हैं।

कोरबा का मौसम

कोरबा का मौसम शुष्क रहता है और गर्म तापमान क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।

कोरबा तक कैसे पहुँचें

कोरबा रेल, वायु तथा सड़क मार्गों से अच्छी तरह से जुड़ा है।

रायगढ़ (Raigarh)

रायगढ़ को छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी के नाम से भी जाना जाता है |
रायगढ़ जिला उत्तर में जशपुर जिला, दक्षिण में महासमुन्द जिला तथा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पूर्व तक उडिसा राज्य की सरहद से 6527.44 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला रायगढ़ जिला उत्तरी क्षेत्र जहां बिहड़, जंगल, पहाडियो से आच्छादित है। वही इसका दक्षिण हिस्सा ठेठ मैदानी है। जिले की बहुसंख्यक आबादी गांवो में निवास करते है। विरहोर इस जिले के विशिष्ट जनजाति है, जो धरमजयगढ़ क्षेत्र में निवास करते है। गोंड, कंवर, उरांव अन्य प्रमुख जनजातियों की सूची में शामिल है। रायगढ़ जिले में ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। यहां सिंघनपुर, ओगना, करमागढ़ की पहाड़ियों तथा रायगढ़ के समीप कबरा पहाड़ प्रागैतिहासिक युग के मनुष्यों द्वारा निर्मित शैलचित्र पाये गये है। पुजारीपाली नामक गांव जो बरमकेला विकासखण्ड में है, पुरातातिवक दृष्टि से काफी प्रसिद्ध है। रायगढ़ से 18 किलोमीटर की दूरी पर सिंघनपुर पहाड़ी के पास रामझरना नामक मनोरम स्थान है। जिले के मध्य से नीचे भाग में पश्चिम से पूर्व की ओर महानदी का बहाव है। जो हीराकुंड डेम के 2 डूबान ग्राम भरतपुर एवं रेबो बरमकेला तहसील में आते है। बरमकेला तहसील के उत्तर भाग में महानदी का प्रवाह है। जिले के उत्तर-पश्चिम अंबिकापुर, मध्य - पश्चिम कोरबा जिला एवं दक्षिण - पश्चिम जांजगीर-चांपा जिला के सीमा से लगा हुआ है ।

राम झरना

जिले से 18 KM दूरी पर प्राकृतिक जल स्त्रोत है । इतिहास के अनुसार वनवास के समय भगवान श्री राम यहाँ पर पानी पिए थे इसलिए इस जगह का नाम राम झरना पड़ा । यह बहुत ही अच्छी जगह है  पिकनिक मानाने के लिए ।

गोमर्डा अभयारण्य 

ये सारंगढ़ के अंतर्गत आता है और यह रायगढ़ से लगभग ६० कम की दुरी पर स्थित है ।येह लगभग २७८ वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है ये एक प्राकृतिक आवास के रूप में जंगली जानवर का आवास है ।

मंदिर 

गौरीशंकर मंदिर , शयाम मन्दिर , पहाड़ मंदिर ,बंजारी मंदिर  (20 Km. )
चंद्रहासिनी मंदिर   30 Km. (चन्द्रपुर , जिला. जांजगीर -चाम्पा)

चक्रधर समारोह
प्रतिवर्ष सांस्कृतिक कार्यक्रम नृत्य,नाटक आदि के द्वारा यह समारोह मनाया जाता है । यह समारोह राजा चक्रधर सिंह के याद में मनाया जाता है |

कैसे पहुंचे 

रायगढ़ रेलमार्ग और बस मार्ग से अच्छी तरह जुड़ा है